यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, घुमक्कड़ को केवल अपने स्वाभाविक स्नेह या मैत्रीपूर्ण भाव से ही इस खतरे का डर नहीं है। डर तब उत्पन्न होता है, जब वह स्नेह ज्यादा घनिष्ठता और अधिक कालव्यापी हो जाय, तथा पात्र भी अनुकूल हो। अधिक घनिष्ठता न होने देने के लिए ही कुछ घुमक्कड़ाचार्यों ने नियम बना दिया था, कि घुमक्कड़ एक रात से अधिक एक बस्ती में न रहे। निरुद्देश्य घूमनेवालों के लिए यह नियम अच्छा भी हो सकता है, किंतु घुमक्कड़ को घूमते हुए दुनिया को आँखें खोलकर देखना है, स्थान-स्थान की चीजों और व्यक्तियों का अध्ययन करना है। यह सब एक नजर देखते चले जाने से नहीं हो सकता। हर महत्वपूर्ण स्थान पर उसे समय देना पड़ेगा, जो दो-चार महीने से दो-एक बरस तक हो सकता है। इसलिए वहाँ घनिष्ठवता उत्पन्न होने का भय अवश्य है। बुद्ध ने ऐसे स्थान के लिए दो और संरक्षकों की बात बतलाई है - ह्री (लज्जा) और अपत्रपा (संकोच)। उन्होंने लज्जा और संकोच को शुक्ल्, विशुद्ध या महान धर्म कहा है, और उनके माहात्म्य को बहुत गाया है। उनका कहना है, कि इन दोनों शुक्लधर्मों की सहायता से पतन से बचा जा सकता है। और बातों की तरह बुद्ध की इस साधारण-सी बात में भी महत्व है। लज्जा और संकोच बहुत रक्षा करते हैं, इसमें संदेह नहीं, जिस व्यक्ति को अपनी, अपने देश और समाज की प्रतिष्ठा का ख्याल होता है, उसे लज्जा और संकोच करना ही होता है। उच्च श्रेणी के घुमक्कड़ कभी ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकते, जिससे उनके व्यक्तित्व या देश पर लांछन लगे। इसलिए ही और अपत्रपा के महत्व को कम नहीं किया जा सकता। इन्हें घुमक्कड़ में अधिक मात्रा में होना चाहिए। लेकिन भारी कठिनाई यह है कि अन्योन्यपूरक व्यक्तियों में एक दूसरे के साथ जितनी ही अधिक घनिष्ठता बढ़ती जाती है, उसी के अनुसार संकोच दूर होता जाता है, साथ ही दोनों एक-दूसरे को समझने लगते हैं, जिसके परिणामस्वरूप लज्जा भी हट जाता है। इस प्रकार लज्जा और संकोच एक हद तक ही रक्षा कर सकते हैं।
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