लोगों की राय

यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

322 पाठक हैं

यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

प्रेम के बारे में किस-किस दृष्टि से सोचने की आवश्यकता है, इसे हमने कुछ यहाँ रख दिया है। घुमक्कड़ को परिस्थिति देखकर इस पर विचार करना और रास्ता् स्वीकार करना चाहिए। शरीर में पौरुष और बल रहते-रहते यदि भूल हो तो कम-से-कम आदमी एक घाट का तो हो सकता है। समय बीत जाने पर शक्ति के शिथिल हो जाने पर भार का कंधे पर आना अधिक दु:ख का कारण होता है। फिर यह भी समझ लेना है, कि घुमक्कड़ का अंतिम जीवन पेंशन लेने का नहीं है। समय के साथ-साथ आदमी का ज्ञान और अनुभव बढ़ता जाता है, और उसको अपने ज्ञान और अनुभव से दुनिया को लाभ पहुँचाना है, तभी वह अपनी जिम्मे़दारी और हृदय के भार को हल्का कर सकता है। इसके साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए, कि समय के साथ दिन और रातें छोटी होती जाती हैं। बचपन के दिनों और महीनों पर ख्याल दौड़ाइए, उन्हें आज के दिनों से मुकाबला कीजिए, मालूम होगा, आज के दस दिन के बराबर उस समय का एक दिन हुआ करता था। वह दिन युगों में वैसे ही बीते, जैसे तेज बुखार आए आदमी का दिन। अंतिम समय में, जहाँ दिन-रात इस प्रकार छोटे हो जाते हैं, वहाँ करणीय कामों की संख्या और बढ़ जाती है। जिस वक्त अपनी दूकान समेटनी है, उस समय के मूल्य का ज्यादा ख्याल करना होगा और अपनी घुमक्कड़ी की सारी देनों को संसार को देकर महाप्रयाण के लिए तैयार रहने की आवश्ययकता है। भला ऐसे समय पंथ की सीमाओं के बाहर जाकर प्रेम करने की कहाँ गुंजाइश रह जाती है? इस प्रकार घुमक्कड़ी से पेंशन लेकर प्रेम करने की साध भी उचित नहीं कहीं जा सकती।

तो क्या कहना पड़ेगा, कि मेघदूत के यक्ष की तरह और एक वर्ष नहीं बल्कि सदा के लिए प्रेम से अभिशप्त होकर रहना घुमक्कड़ के भाग्य में बदा है। बात वस्तुत: बहुत कुछ ऐसी ही मालूम होती है। घुमक्कड़ चाहे मुँह से कहे या न कहे, लेकिन दूसरों को समझ लेना चाहिए, कि उससे प्रेम करके कोई व्यक्ति सुखी नहीं रह सकता। वह अपने संपूर्ण हृदय को किसी दूसरी प्रेयसी - घुमक्कड़ी - को दे चुका है। उसके दो हृदय तो नहीं हैं। कि एक-एक को एक-एक में बाँट दे। घुमक्कड़ों की प्रेमिकाओं का बहुत पुराना तजर्बा है - “परदेशी की प्रीत, भुस का तापना। दिया कलेजा फूँक, हुआ नहीं आपना।” हमारे देश में बंगाल और कामाख्या जादूगर महिलाओं के देश माने जाते रहे हैं, कोई-कोई कटक को भी उसमें शामिल करते थे और कहा जाता था, कि वहाँ की जादूगरनियाँ आदमी को भेड़ा बनाकर रख लेती हैं। घुमक्कड़ों की परंपरा में ऐसे और कई स्थान शामिल किए गये थे, जिनकी बातें मौखिक परंपरा से एक से दूसरे के पास पहुँच जाती थीं। एक अजन्मा घुमक्कड़ साधु कुल्लू़ की सीमा के भीतर इसलिए नहीं गये, कि उन्हें किसी गुरु ने बतला दिया था - “जो जाये कुल्लू, हो जाये उल्लू।” हमारे आज के घुमक्कड़ को सिर्फ भारत की सीमा के ही भीतर नहीं रह पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण चारों खूँट पृथ्वी को त्रिविक्रम की तरह अपने पैरों से नापना है, फिर उसके रास्ते में न जाने कितने कामाख्या, बंगाल और कुल्लू मिलेंगे, और न जाने कितनी जगह मंत्र पढ़कर पीली सरसों उस पर फेंकी जायगी। इसलिए उसके पास दृढ़ मनोबल की वैसी ही अत्यधििक आवश्यकता है जैसे दुर्गम पथों में साहस और निर्भीकता की।


0 0 0

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book