यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
यह करोड़पति प्रकाशक लोगों को प्रकाश में नहीं लाना चाहते; वह चाहते हैं कि वह और अँधेरे में रहें, इसीलिए वह लोगों को हर तरह से बेवकूफ रखने की कोशिश करते हैं। मुझे अपना तजुर्बा याद आता है : लंदन में बहुप्रचलित “डेलीमेल” (पत्र) के संवाददाता ने मेरी तिब्बत-यात्रा के बारे में लिखते हुए बिलकुल अपने मन से यह भी लिख डाला - “यह तिब्बत के बीहड़ जंगलों में घूम रहे थे, इसी वक्त डाकुओं ने आकर घेर लिया, वह तलवार चलाना ही चाहते थे कि भीतर से एक बाघ दहाड़ते हुए निकला, डाकू प्राण लेकर भाग गये।” पत्र के आफिस से जब यह बात मेरे पास भेजी गई, तो मैंने झूठी असंभव बातों को काट दिया और बतलाया कि तिब्बत में न वैसा जंगल है, और न वहाँ बाघ ही होते हैं। लेकिन अगले दिन देखा, दूसरी पंक्तियों में कुछ कम भले ही हो गईं, किंतु काटी हुई पंक्तियाँ वहाँ मौजूद थीं। “डेलीमेल” वाले एक ही ढेले से दो चिड़ियाँ मार रहे थे। मुझे वह ढोंगी और झूठा साबित करना चाहते थे और अपने 14-15 लाख ग्राहकों में से काफी को ऐसे चमत्कार की बात सुनाकर हर तरह के मिथ्या विश्वासों पर दृढ़ करना चाहते थे। जनता जितना अंधविश्वास की शिकार रहे, उतना ही तो इन जोंको को लाभ है। इससे यह भी मालूम हो गया कि इस तरह के चमत्कारों को भी अन्य में भरने का प्रोत्साहन प्रकाशकों की ओर से दिया जाता है। उसी समय हमारे देश के एक स्वामी लंदन में विराज रहे थे। उन्होंने कुछ अपने और कुछ अपने गुरु के संबंध से हिमालय, मानसरोवर और कैलाश के नाम से ऐसी-ऐसी बातें लिखी थीं, जिनको यदि सच मान लिया जाय, तो दुनिया की कोई चीज असंभव नहीं रहेगी। घुमक्कड़ों को अपनी जिम्मेवारी समझनी चाहिए और कभी झूठी बातों और मिथ्या विश्वास को अपनी लेखनी से प्रोत्साहन देकर पाठकों को अंधकूप में नहीं गिराना चाहिए।
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