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धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग

ज्ञानयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9578
आईएसबीएन :9781613013083

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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन


वह ज्ञान सभी को प्राप्त होगा, किन्तु हमें उसे अभी प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना चाहिए क्योंकि जब तक हम उसे प्राप्त नहीं कर लेते, हम मानव जाति की वस्तुत: उत्तम सहायता नहीं कर सकते। जीवन्मुक्त (जीवित रहते हुए मुक्त अथवा ज्ञानी) ही केवल यथार्थ प्रेम, यथार्थ दान, यथार्थ सत्य देने में समर्थ होता है और सत्य ही हमें मुक्त करता है। कामना हमें दास बनाती है, मानो वह एक अतृप्त अत्याचारी शासिका है जो अपने शिकार को चैन नहीं लेने देती; किन्तु जीवन्मुक्त व्यक्ति इस ज्ञान तक पहुँचकर कि वह अद्वितीय ब्रह्म है और उसे अन्य कुछ काम नहीं है, सभी कामनाओं को जीत लेता है। मन हमारे समक्ष - देह, लिंग, सम्प्रदाय, जाति, बन्धन आदि - सभी भ्रमों को उपस्थित करता है; इसलिए जब तक मन को सत्य की उपलब्धि न हो जाय तब तक उससे निरन्तर सत्य कहते रहना है। हमारा असली स्वरूप आनन्द है, और संसार में जो कुछ सुख हमें मिलता है, वह उस परमानन्द का केवल प्रतिबिम्ब, उसका अणुमात्र भाग है, जो हम अपने असली स्वरूप के स्पर्श से पाते हैं। 'वह' सुख और दुःख दोनों से परे है, वह विश्व का 'द्रष्टा' है, ऐसा अपरिवर्तनीय पाठक है, जिसके समक्ष जीवन-ग्रन्थ के पृष्ठ खुलते चले जाते हैं।

अध्यास से योग, योग से ज्ञान, ज्ञान से प्रेम और प्रेम से परमानन्द की प्राप्ति होती है। 'मुझे और मेरा' एक अन्धविश्वास है; हम उसमें इतने समय रह चुके हैं कि उसे दूर करना प्राय: असम्भव है। परन्तु यदि हमें सर्वोच्च स्तर पर पहुँचना है तो हमें इससे अवश्य मुक्त होना चाहिए। हमें सुखी और प्रसन्न होना चाहिए मुँह लटकाने से धर्म नहीं बनता। धर्म संसार में सर्वाधिक आनन्द की वस्तु होना चाहिए, क्योंकि वही सर्वोत्तम वस्तु है। तपस्या हमें पवित्र नहीं बना सकती। जो व्यक्ति भगवत्-प्रेमी और पवित्र है, वह दुःखी क्यों होगा? उसे तो एक सुखी बच्चे के समान होना चाहिए, क्योंकि वह तो सचमुच भगवान् की ही एक सन्तान है। धर्म में सर्वोपरि बात चित्त को निर्मल करने की है। स्वर्ग का राज्य हमारे भीतर है, पर केवल निर्मल-चित्त व्यक्ति ही राजा के दर्शन कर सकता है। जब हम संसार का चिन्तन करते हैं, तब हमारे लिए संसार ही होता है, किन्तु यदि हम उसके पास इस भाव से जायँ कि वह ईश्वर है तो हमें ईश्वर की प्राप्ति होगी। हमारा ऐसा चिन्तन प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक व्यक्ति के प्रति होना चाहिए - माता, पिता, बच्चे, पति, पत्नी, मित्र और शत्रु, सब के प्रति। सोचो तो, हमारे लिए समग्र विश्व कितना बदल जाय, यदि हम चेतनापूर्वक उसे ईश्वर से भर सकें! ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ न देखो। तब हमारे सभी दुःख, सभी संघर्ष, सभी कष्ट सदैव के लिए हमसे छूट जाएँगे।

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