धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
सुधार के दुर्धर्ष प्रयत्नों का अन्त सदैव सच्चे सुधार को अवरुद्ध करने में होता है। उपासना करना, हर मनुष्य के स्वभाव में अन्तर्निहित है; केवल उच्चतम दर्शन शास्त्र ही विशुद्ध अमूर्त विचारणा तक पहुँच सकता है। इसलिए अपने ईश्वर की पूजा करने के लिए मनुष्य उसे सदैव एक व्यक्ति का रूप देता रहेगा। जब तक प्रतीक की पूजा - वह चाहे जो कुछ हो - उसके पीछे स्थित ईश्वर के प्रतीक रूप में होती है, स्वयं प्रतीक की और प्रतीक के लिए ही नहीं, वह बहुत अच्छी चीज है। सर्वोपरि हमें अपने को, किसी बात पर, केवल इसलिए कि वह ग्रन्थों में है, विश्वास करने के अन्धविश्वास से मुक्त करने की आवश्यकता है। हर वस्तु - विज्ञान, धर्म, दर्शन तथा अन्य सब को, जो किसी पुस्तक में लिखा हो उसके समरूप बनाना एक भीषणतम अत्याचार है। ग्रन्थ-पूजा मूर्ति-पूजा का निकृष्टतम रूप है।
एक बारहसिंगा था, गर्वीला और स्वतन्त्र। एक राजा के सदृश उसने अपने बच्चे से कहा, ''मेरी ओर देखो, मेरे शक्तिशाली सींग देखो, एक चोट से मैं आदमी मार सकता हूँ। बारहसिंगा होना कितना अच्छा है।'' ठीक तभी आखेटक के बिगुल की ध्वनि दूर पर सुनायी पड़ी और बारहसिंगा अपने चकित बच्चे द्वारा अनुचरित एकदम भाग पड़ा। जब वे एक सुरक्षित स्थान पर पहुँच गये तो उसने पूछा, ''हे मेरे पिता, जब तुम इतने बलवान और वीर हो तो तुम मनुष्य के सामने से क्यों भागते हो?''
बारहसिंगे ने उत्तर दिया, ''मेरे बच्चे, मैं जानता हूँ कि मैं बलवान और शक्तिशाली हूँ? किन्तु जब मैं वह ध्वनि सुनता हूँ तो मुझ पर कुछ ऐसा छा जाता है, जो मुझे भगाता है, मैं चाहूँ या न चाहूँ।'' ऐसा ही हमारे साथ है। हम ग्रन्थों में वर्णित नियमों के 'बिगुल की ध्वनि' सुनते हैं, आदतें और पुराने अन्धविश्वास हमें जकड़े रहते हैं; इसका ज्ञान होने के पूर्व ही हम दृढ़ता से बँध जाते हैं और अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाते हैं जो कि मुक्ति है।
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