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धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग

ज्ञानयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9578
आईएसबीएन :9781613013083

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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन


हमारे समक्ष सर्वत्र व्यापक रूप से प्रकट होनेवाली परिपूर्ण सत्ता ईश्वर, ब्रह्म है। विभेदीकरणरहित दशा ही पूर्णता की दशा है, अन्य सब अस्थायी और निम्नतर होती हैं।

विभेदरहित सत्ता मन को विभेदयुक्त क्यों प्रतीत होती है? यह उसी प्रकार का प्रश्न है, जैसा यह कि अशुभ और इच्छा-स्वातन्त्र्य का स्रोत क्या है? प्रश्न स्वयं आत्मविरोधी और असम्भव है, क्योंकि प्रश्न कार्य और कारण को स्वयंसिद्ध मान लेता है। अविभेद में कारण और कार्य नहीं होता, प्रश्न यह मान लेता है कि अविभेद उसी स्थिति में है, जिसमें कि विभेदयुक्त 'क्यों' और 'कहाँ से' केवल मन में होते हैं। आत्मा कारणता से परे है और केवल वही स्वतन्त्र है। यह उसी का प्रकाश है, जो मन के हर रूप से झरता रहता है। हर कार्य के साथ मंत कहता हूँ कि मैं स्वतन्त्र हूँ? किन्तु हर कार्य सिद्ध करता है कि मैं बद्ध हूँ। वास्तविक आत्मा स्वतन्त्र है, किन्तु मस्तिष्क और शरीर के साथ मिश्रित होने पर वह स्वतन्त्र नहीं रह जाती। संकल्प या इच्छा इस वास्तविक आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है, अतएव इस वास्तविक आत्मा का प्रथम सीमाकरण संकल्प या इच्छा है। इच्छा, आत्मा और मस्तिष्क का एक मिश्रण है। किन्तु कोई मिश्रण स्थायी नहीं हो सकता। इसलिए जब हम जीवित रहने की इच्छा करते हैं, हमें अवश्य मरना चाहिए। अमर जीवन परस्परविरोधी शब्द हैं, क्योंकि जीवन एक मिश्रण होने से स्थायी नहीं हो सकता। सत्य सत्ता अभेद और शाश्वत है। यह पूर्ण सत्ता सभी दूषित वस्तुओं, इच्छा, मस्तिष्क और विचार से किस प्रकार संयुक्त हो जाती है? वह कभी संयुक्त या मिश्रित नहीं हुई है। तुम्हीं वास्तविक तुम हो (हमारे पूर्वकथन के 'ख' ), तुम कभी इच्छा न थे, तुम कदापि नहीं बदले हो, एक व्यक्ति के रूप में कभी तुम्हारा अस्तित्व न था; यह भ्रम है। तब आप कहेंगे कि भ्रम के गोचर पदार्थ किस पर आश्रित हैं? यह एक कुप्रश्न है। भ्रम कभी सत्य पर आश्रित नहीं होता, भ्रम तो भ्रम पर ही आश्रित होता है। इन भ्रमों के पूर्व जो था, उसी पर लौटने के लिए, सचमुच स्वतन्त्र होने के लिए, हर वस्तु संघर्ष कर रही है। तब जीवन का मूल्य क्या है? वह हमें अनुभव देने के निमित्त है। क्या यह विचार विकासवाद की अवहेलना करता है? नहीं, इसके विपरीत वह उसे स्पष्ट करता है। विकास वस्तुत: भौतिक पदार्थ के सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया है, जिससे वास्तविक आत्मा को अपनी अभिव्यक्ति करने में सहायता मिलती है। वह हमारे और किसी अन्य वस्तु के बीच किसी पदें या आवरण जैसा है। पर्दे के क्रमश: हटने पर, वस्तु स्पष्ट हो जाती है। प्रश्न केवल उच्चतर आत्मा की अभिव्यक्ति का है।

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