लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग

ज्ञानयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9578
आईएसबीएन :9781613013083

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

335 पाठक हैं

स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन


वेदान्त कहता है, ''हम वह (विज्ञाता) हैं, किन्तु हम कभी उसे विषयतया जान नहीं सकते, क्योंकि वह कभी ज्ञान का विषय नहीं हो सकता।'' आधुनिक विज्ञान भी कहता है कि 'वह' कभी जाना नहीं जा सकता। फिर भी समय-समय पर हम उसकी झलक पा सकते हैं। संसार-भ्रम एक बार टूट जाने पर वह हमारे पास पुन: लौट आता है, किन्तु तब हमारे लिए उसमें कोई वास्तविकता नहीं रह जाती। हम उसे एक मृगतृष्णा के रूप में ही ग्रहण करते हैं। इस मृगतृष्णा के परे पहुँचना ही सभी धर्मों का लक्ष्य है। वेदों ने निरन्तर यही उपदेश दिया है कि मनुष्य और ईश्वर एक है, किन्तु बहुत कम लोग इस पर्दे (माया) के पीछे प्रवेश कर पाते और परम सत्य की उपलब्धि कर पाते हैं। जो ज्ञानी बनना चाहे, उसे सर्वप्रथम भय से मुक्त होना चाहिए। भय हमारे सब से बुरे शत्रुओं में से एक है। इसके बाद जब तक किसी बात को 'जान न लो' इस पर विश्वास न करो। अपने से निरन्तर कहते रहो,  ''मैं शरीर नहीं हूँ? मैं मन नहीं हूँ? मैं विचार नहीं हूँ,  चेतना भी नहीं हूँ? मैं आत्मा हूँ।'' जब तुम सब छोड़ दोगे तब यथार्थ आत्म-तत्व रह जाएगा। ज्ञानी का ध्यान दो प्रकार का होता है :

(१) हर ऐसी वस्तु से विचार हटाना और उसको अस्वीकार करना जो हम 'नहीं है'।

(२) केवल उसी पर दृढ़ रहना जो कि वास्तव में हम 'हैं' और वह है आत्मा - केवल एक सच्चिदानन्द परमात्मा।

सच्चे विवेकी को आगे बढ़ना चाहिए और अपने विवेक की सुदूरतम सीमाओं तक निर्भयतापूर्वक इसका अनुसरण करना चाहिए। मार्ग में कहीं रुक जाने से काम नहीं बनेगा। जब हम अस्वीकार करना प्रारम्भ करें तो, जब तक हम उस विषय पर न पहुँच जायँ जिसे अस्वीकार किया या हटाया नहीं जा सकता - जो कि यथार्थ 'मैं' है, शेष सब हटा ही देना चाहिए। वही 'मैं' विश्व का द्रष्टा है, वह अपरिवर्तनशील, शाश्वत और असीम है। अभी अज्ञान की परत पर चढ़ी परत ही उसे हमारी दृष्टि से ओझल किये हुए है, पर वह सदैव वही रहता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book