कविता संग्रह >> कह देना कह देनाअंसार कम्बरी
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आधुनिक अंसार कम्बरी की लोकप्रिय ग़जलें
मुग़लों
के अहद में ग़ज़ल का ख़ूब श्रृंगार किया गया। नवाबी दौर में उसे महफ़िलों की
ज़ीनत और हरम की रौनक़ बनाया गया। उसके पाँवों में घुंघरू बाँधे गये। इसके
बाद ग़ज़ल ने देश के पाँवों में जंजीरें देखी, अंग्रेजों के ज़ुल्म देखे, देश
का विभाजन देखा, देश की चीख़े सुनी उसके दर्द को महसूस किया तो वह भी दर्द
बाँटने के लिये हर आदमी के दुख-दर्द में शरीक हो गयी और उनसे बात करने लगी
और उनके हाल पूछने लगी। हालात बदलने के साथ-साथ ग़ज़ल के रंग भी बदलते गये
और जबान भी बदलती गई। यहाँ तक कि जैसी ज़रूरत वैसी बात, वैसी ज़बान। उसे
उर्दू अच्छी लगी उर्दू बोली, उसे हिन्दी अच्छी लगी हिन्दी बोली। इसका
परिणाम ये हुआ कि उर्दू ने कहा मेरी ग़ज़ल, हिन्दी ने कहा मेरी ग़ज़ल। इस तरह
ग़ज़ल अपना बँटवारा देख कर चीख उठी :
मुझको
बाँटो नहीं जबानों में,
मैं
ग़ज़ल हूँ, ग़ज़ल ही रहने दो
इसकी
तसदीक़ करते हुये ग़ज़ल अपनी ज़बाने-बेज़बानी से कहती है कि मैं खुसरो, मीर,
ग़ालिब, दाग़, इक़बाल, जोश के साथ रही तो मैं मुंशी प्यारे लाल ‘शौक़ी’, पंडित
चन्द्रकान्त ‘बिरहमन’, पंडित ब्रज नारायण ‘चकबस्त’ पंडित आनंद नारायण
‘मुल्ला’, रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ के साथ भी रही और वर्तमान में दुष्यंत
कुमार तक आते -आते जनता के साथ हो गई। मैं क़दीम भी हूँ, जदीद भी, रवायती
भी हूँ, तरक़्क़ीपसन्द भी, क्यूँकि मैं नाम नहीं बल्कि बातचीत का सलीक़ा
हूँ। मुझे ज़िन्दा रखने के लिये जबानों की नहीं सलीक़े को बचाये रखने की
ज़रूरत है।
नवगीतकार
होने के बावजूद जब दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल के इसी सलीक़े को जबान दी तो उससे
कोई भी संवेदनशील ह्रदय रखने वाला प्रभावित हुये बिना नहीं रह सका तथा
इसका प्रभाव कवियों और शायरों पर भी पड़ना स्वाभाविक था और ऐसा ही हुआ।
हालाँकि इससे पहले भी हिन्दी के अनेक दिग्गज कवियों ने अपने-अपने अहद में
ग़ज़लें कहीं किन्तु दुष्यंत की ग़ज़लों की विषयवस्तु का जो प्रभाव समाज पर
पड़ा वैसा इसके पूर्व नहीं दिखा।
इसका
परिणाम ये हुआ कि हिन्दी संसार में ग़ज़लों की बाढ़ सी आ गयी और उर्दू वालों
ने भी इसका भरपूर लाभ उठाया। चूँकि उर्दू वाले शायरी के फ़न से पहले से
वाक़िफ़ थे अतः उन्होंने दुष्यंत से प्रभावित होकर ग़ज़ल के कहन में बदलाव
लाना शुरू कर दिया आज अनेक शायर दुष्यंत से प्रभावित होकर अश्आर कहते हैं
और ख़ूब वाहवाही बटोरते हैं। किन्तु हिन्दी में ग़ज़ल कहने वाले फ़न्ने-शायरी
की कम जानकारी के कारण इतना प्रभावी नहीं हो पा रहे हैं फिरभी कुछ कवियों
ने ग़ज़ल के फ़न को समझा और बेहतरीन ग़ज़लें कह कर उर्दू वालों के दंभ को तोड़ा
और उनको सोचने और लीक से हट कर चलने पर मजबूर कर दिया। हाँ ! एक बात और
कहता चलूँ कि उर्दू वालों को भी बहुत दंभ नहीं करना चाहिए। एक मशहूर कहावत
है कि ‘काबुल में सब घोड़े नहीं होते’। ऐसा हिन्दी और उर्दू के क़लमकारों
में दोनों तरफ़ पाया जाता है केवल कम और ज़्यादा हो सकता है। इसके अनेक
उदाहरण दिये जा सकते हैं किन्तु इस विषय में कोई उदाहरण देना मुनासिब नहीं
समझ रहा हूँ. क्यूँकि मैं स्वयं ग़ज़लें कहता हूँ।
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