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कह देना

अंसार कम्बरी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9580
आईएसबीएन :9781613015803

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आधुनिक अंसार कम्बरी की लोकप्रिय ग़जलें


उन दिनों वे हास्य-व्यंग्य के साथ गीत और ग़ज़ल भी कह रहे थे। चूँकि मैं भी शायरी में दख़ल रखता था इसलिये मुझे भी चुल्ल सवार हुई और मैंने भी एक पैरोडी बना डाली। और अगले वर्ष जब होली का अवसर आया तो मैंने उसे पूरे मनोयोग से सुना दिया। वहाँ मौजूद सभी लोगों ने मेरी ख़ूब सराहना की। चौबेजी भी तारीफ़ करने वालों में शामिल थे। चूँकि हमारा कार्यालय एक ही था इसलिये उनसे अक्सर मुलाक़ातें होने लगीं। मुलाक़ातों और सुनने-सुनाने का सिलसिला बढ़ा तो एक दिन वे मुझे कार्यालय से इतर नगर के एक कवि-सम्मेलन में ले गये। हुआ यूँ कि आदरणीय शिवकुमार सिंह ‘कुँवर’ जी , ‘जो नगर के एक वरिष्ठ गीतकार हैं ‘ गुरु जी को काव्य-पाठ के लिये आमंत्रित करने आये, वहाँ मैं भी मौजूद था अतः गुरु जी ने उनसे मेरा परिचय कराया और मुझे भी आमंत्रित करने को उनसे कहा जिस पर वे सहर्ष राज़ी हो गये। इस तरह मुझे काव्य-पाठ के लिये डॉ . सूर्य प्रकाश शुल्क व्दारा आयोजित दर्शनपुरवा, कानपुर में पहला हिन्दी मंच मिला। सौभाग्य से वहाँ भी मेरी ख़ूब वाहवाही हुई। धीरे-धीरे मैं कवि-सम्मेलनों में भाग लेने लगा। उर्दू लबोलहजे का होने के कारण कवि-सम्मेलनों में मैं वो प्रभाव नहीं छोड़ पाता था जैसा प्रभाव हिन्दी के अन्य कवियों का पड़ता था। यह कसक मुझे सालती रहती थी। मैंने एक दिन अपनी मनःस्तिथि का चर्चा चौबे जी से किया तो उन्होंने कविता से सम्बंधित मुझे बहुमूल्य सुझाव दिये और मैंने उसी दिन से उन्हें अपना काव्य गुरु मान लिया तथा उनसे काव्य की बारीकियों को समझने लगा। पता ही नहीं चला कब मुझे उनका पुत्रवत प्यार-दुलार मिलने लगा। आज मैं जिस भी लायक़ हूँ गुरु जी के स्नेह एवं आशीर्वाद का परिणाम है।

उनकी स्मृतियाँ जो मेरे मन को आज भी गुदगुदाती हैं, उनको आप तक पहुँचाने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूँ, वो ये कि कार्यालय में एक औद्योयोगिक संग्रहालय है जो कार्यालय का सबसे सुंदर स्थान है। वहीं से एक उद्योग समाचार पत्र ‘इंडस्ट्रीज़ न्यूज़ लेटर’ के नाम से प्रकाशित होता था जिसका सम्पादन एवं पब्लिसिटी सम्बन्धी कार्य गुरु जी देखते थे। संग्राहलय में एक नये टाईपिस्ट की नियुक्ति हुई। वहाँ एक अनवारुल हुदा साहब भी कार्यरत थे। वे आते थे और संग्राहलय का एक-आध चक्कर लगा कर कुर्सी पर बैठते ही ख़र्राटे भरने लगते थे। यह उनका रोज़ का नियम था। एक दिन नये आये हुये टाईपिस्ट ने चौबे जी से पूछा ये कौन सज्जन हैं जो यहाँ सोया करते हैं। चौबे जी ने बताया ये यहाँ आर्टिस्ट के पद पर कार्यरत हैं। उसने फिर कहा आर्टिस्ट हैं तो ये बनाते क्या हैं ..? इस पर गुरु जी ने कहा ये सरकार को बेवक़ूफ़ बनाते हैं।

गुरु जी कार्यालय में बी. कुमार, संयुक्त निदेशक उद्योग के अधीन कार्यरत थे। एक दिन कुमार साहब के कक्ष में संयोग से जूनियर अधिकारी गौड़ साहब, गुरु जी तथा तीन चार अन्य अधिकारीगण मौजूद थे तभी एक उद्यमी नमूने के तौर पर बूट पालिश की दो डिब्बियाँ लेकर आया और संयुक्त निदेशक महोदय को देकर और कुछ बातचीत करके चला गया। उसके जाने के बाद कुमार साहब ने गौड़ साहब को सहज भाव से पालिश की डिब्बियाँ ले जाने को कहा, गौड़ साहब जब डिब्बियाँ ले जाने लगे तो वहाँ उपस्थित गुरु जी ने कहा सर ! इनको ब्रश और दिलवा दीजिये – एक ठहाका कक्ष में गूँज गया।

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