धर्म एवं दर्शन >> कर्म और उसका रहस्य कर्म और उसका रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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कर्मों की सफलता का रहस्य
कर्मयोग
मानसिक और भौतिक सभी विषयों से आत्मा को पृथक कर लेना ही हमारा लक्ष्य है।
इस लक्ष्य के प्राप्त हो जाने पर आत्मा देखती है कि वह सर्वदा ही एकाकी रही
है और उसे सुखी बनाने के लिए अन्यकिसी की आवश्यकता नहीं। जब तक अपने को सुखी
बनाने के लिए हमें अन्य किसी की आवश्यकता होती है, तब तक हम दास हैं। जब
‘पुरुष’ जान लेता है कि वह मुक्त है, उसे अपनी पूर्णता के लिए अन्य किसी की
आवश्यकता नहीं, एवं यह प्रकृति नितान्त अनावश्यक है, तब कैवल्य-लाभ हो जाता
है।
मनुष्य चाँदी के चंद टुकड़ों के पीछे दौड़ता रहता है और उनकी प्राप्ति के लिए
अपने एक सजातीय को भी धोखा देने से नहीं हिचकता, पर यदि वह स्वये पर नियेत्रण
रखे तो कुछ ही वर्षों में अपने चरित्र का ऐसा सुन्दर विकास कर सकता है कि यदि
वह चाहे तो लाखों रुपये उसके पास आ जायें। तब वह अपनी इच्छा शक्ति से जगत् का
परिचालन कर सकता है, किन्तु हम कितने निर्बुद्धि हैं।
अपनी भूलों को संसार को बताते फिरने से क्या लाभ? इस तरह उनका परिहार तो हो
नहीं सकता। अपनी करनी का फल तो सबको भुगतना ही पड़ेगा। हम यही कर सकते हैं कि
भविष्य में अधिक अच्छा काम करें। बली और शक्तिमान के साथ ही संसार की
सहानुभूति रहती है।
केवल वही कर्म, जो मानवता और प्रकृति को मुक्त
संकल्प द्वारा अर्पित करने के रूप में किया जाता है, बन्धन का कारण नहीं
होता।
किसी भी प्रकार के कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। जो व्यक्ति कोई
छोटा या नीचा काम करता है, वह केवल इसी कारण ऊँचा काम करने वाले की अपेक्षा
छोटा या हीन नहीं जाता। मनुष्य की परख उसके कर्त्तव्य की उच्चता या हीनता पर
नहीं होनी चाहिये, वरन् यह देखना चाहिये कि वह कर्त्तव्यो का पालन किस ढंग से
करता है। मनुष्य की सच्ची पहचान तो अपने कर्त्तव्यों को करने की उसकी शक्ति
और शैली से होती है। एक मोची, जो कि कम समय में बढ़िया और मजबूत जूतों की
जोड़ी तैयार कर सकता है, अपने व्यवसाय में उस प्राध्यापक की अपेक्षा कहीं
अधिक श्रेष्ठ है, जो अपने जीवन भर प्रतिदिन थोथी बकवास ही किया करता है।
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