धर्म एवं दर्शन >> कर्म और उसका रहस्य कर्म और उसका रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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कर्मों की सफलता का रहस्य
जो मनुष्य प्रेम और स्वतंत्रता से अभिभूत होकर कार्य करता है, उसे फल की कोई
चिन्ता नहीं रहती। परन्तु दास कोड़ों की मार चाहता है और नौकर, अपना वेतन।
ऐसा ही समस्त जीवन में है। उदाहरणार्थ, सार्वजनिक जीवन को ले लो। सार्वजनिक
सभा में भाषण देने वाला या तो तालियाँ चाहता है या विरोध-प्रदर्शन ही। यदि
तुम इन दोनों में से उसे कुछ भी न दो तो वह हतोत्साह हो जाता है, क्योंकि उसे
इसकी जरूरत है। यही दास की तरह काम करना कहलाता है। ऐसी परिस्थितियों में,
बदले में कुछ चाहना हमारी दूसरी प्रकृति बन जाती है। इसके बाद है नौकर का
काम, जो किसी वेतन की अपेक्षा करता है। मैं तुम्हें यह देता हूँ और तुम मुझे
यह दो।
मैं कार्य के लिये ही कार्य करता हूँ – यह कहना तो बहुत सरल है, पर इसे पूरा
कर दिखाना बहुत ही कठिन है। मैं कर्म के लिये ही कर्म करने वाले मनुष्य के
दर्शन करने के लिये बीसों कोस सिर के बल जाने को तैयार हूं। लोगों के काम में
कहीं न कहीं स्वार्थ छिपा रहता है। यदि वह धन नहीं होता, तो वह शक्ति होती
है, यदि शक्ति नहीं तो अन्य कोई लाभ। कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में
स्वार्थ रहता अवश्य है। तुम मेरे मित्र हो, और मैं तुम्हारे लिए तुम्हारे साथ
रहकर काम करना चाहता हूँ। यह सब दिखने में बहुत अच्छा है, और प्रतिपल मैं
अपनी सच्चाई की दुहाई भी दे सकता हूं। पर ध्यान रखो, तुम्हें मेरे मत से मत
मिलाकर काम करना होगा। यदि तुम मुझसे सहमत नहीं होते, तो मैं तुम्हारी कोई
परवाह न करता। स्वार्थसिद्धि के लिये इस प्रकार का काम दुखदायी होता है। जहाँ
हम अपने मन के स्वामी होकर कार्य करते हैं, केवल वही कर्म हमें अनासक्ति और
आनन्द प्रदान करता है।
एक बड़ा पाठ सीखने का यह है कि समस्त विश्व का मूल्य आंकने के लिए मैं ही
मापदण्ड नहीं हूँ। प्रत्येक व्यक्ति का मूल्यांकन उसके अपने भावों के अनुसार
होना चाहिए। इसी प्रकार प्रत्येक देश और जाति के आदर्शों और रीतिरिवाजों की
जाँच उन्हीं के विचारों, उन्हीं के मापदण्ड के अनुसार होनी चाहिये।
अमेरिकावासी जिस परिवेश में रहते हैं, वही उनके रीति-रिवाजों का कारण है, और
भारतीय प्रथाएँ भारतीयों के परिवेश की फलोत्पत्ति हैं, और इसी प्रकार चीन,
जापान, इंग्लैण्ड तथा अन्य हर जेश के सम्बन्ध में भी यही बात है।
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