धर्म एवं दर्शन >> कर्म और उसका रहस्य कर्म और उसका रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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कर्मों की सफलता का रहस्य
आसक्ति ही अभी हमारे सब सुखों की जननी है। हम अपने मित्रों और संबंधियों में
आसक्त हैं; हम अपने बौद्धिक और आध्यात्मिक कार्यों में आसक्त हैं;हम बाह्य
वस्तुओं में आसक्त हैं। इसलिए कि उनसे हमें सुख मिले। पर क्या इस आसक्ति के
अतिरिक्त अन्य और किसी कारण से हम पर दु:ख आता है? अतएव, आनन्द प्राप्त करने
के लिए हमें अनासक्त होना चाहिए। यदि हममें इच्छा मात्र से अनासक्त होने की
शक्ति होती, तो हमें कभी दु:ख न होता। केवल वही मनुष्य प्रकृति से पूरा-पूरा
लाभ उठा सकता है, जो किसी वस्तु में अपने मन को अपनी समस्त शक्ति के साथ लगा
देने के साथ ही अपने को स्वेच्छा से, जब उससे अलग हो जाना चाहिए तब उससे अलग
कर लेने की भी सामर्थ्य रखता है। कठिनाई यह है कि आसक्ति और अनासक्ति की
क्षमता समान रूप से होनी चाहिए। संसार में ऐसे भी मनुष्य हैं, जो किसी वस्तु
द्वारा कभी आकृष्ट नहीं होते। वे कभी प्यार नही कर सकते, वे कठोर हृदय और
निर्मम होते है, दुनिया के अधिकांश दु:खों से वे मुक्त रहते हैं। किन्तु
प्रश्न उठ सकता है, दीवाल भी तो कभी कोई दु:ख अनुभव नहीं करती, दीवाल भी तो
कभी प्यार नहीं करती और न उसे कोई कष्ट होता है। पर दीवाल आखिर दीवाल ही है।
दीवाल बनने से तो आसक्त होना और बँध जाना निश्चय ही अच्छा है। अतएव, जो
मनुष्य कभी प्यार नहीं करता, जो कठोर और पाषाण-हृदय है और इसी कारण जीवन के
अनेक दु:खों से छुटकारा पा जाता है, वह जीवन के अनेक सुखों से भी हाथ धो
बैठता है। हम यह नहीं चाहते। यह तो दुर्बलता है। यह तो मृत्यु है। जो कभी
दु:ख नहीं अनुभव करती, जो कभी दुर्बलता नहीं महसूस करती, वह आत्मा अभी जाग्रत
है। यह एक निष्ठुर दशा है। हम यह नहीं चाहते।
पर साथ ही, हम केवल इतना ही नहीं चाहते कि यह प्रेम की अथवा आसक्ति की महान्
शक्ति, एक ही वस्तु पर सारी लगन लगा देने की ताकत, या दूसरों के लिए अपना
सर्वस्व खो बैठने और स्वयं का विनाश तक कर डालने का देव-सुलभ गुण हमें उपलब्ध
हो जाय, वरन् हम देवताओं से भी उच्चतर होना चाहते हैं। सिद्ध पुरुष अपनी
सम्पूर्ण लगन प्रेम की वस्तु पर लगा सकता है और फिर भी अनासक्त रह सकता है।
यह कैसे सम्भव होता है? यह एक दूसरा रहस्य है, जो सीखना चाहिए।
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