धर्म एवं दर्शन >> कर्म और उसका रहस्य कर्म और उसका रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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कर्मों की सफलता का रहस्य
यह बहुत कठिन है, पर यह कठिनाई लगातार अभ्यास द्वारा दूर की जा सकती है। हमें
यह ध्यान रखना चाहिए कि जब तक हम अपने आपको दुर्बल न बनाएँ, तब तक हम पर कुछ
नहीं हो सकता। मैने अभी ही कहा है कि जब तक शरीर रोग के प्रति पूर्वप्रवृत न
हो, मुझे कोई रोग नहीं होगा। रोग होना केवल कीटाणुओं पर ही अवलम्बित नहीं है,
पर शरीर की पूर्वानुकूलता पर भी। हमें वही मिलता है, जिसके हम पात्र हैं। आओ,
हम अपना अभिमान छोड़ दें और यह समझ लें कि हम पर आयी हुई कोई भी आपत्ति ऐसी
नहीं है, जिसके हम पात्र न थे। फ़िजूल चोट कभी नहीं पड़ी; ऐसी कोई बुराई नहीं
है, जो मैने स्वयं अपने हाथों न बुलाई हो। इसका हमें ज्ञान होना चाहिए। तुम
आत्मनिरीक्षण कर देखो, तो पाओगे कि ऐसी एक भी चोट तुम्हें नहीं लगी, जो स्वयं
तुम्हारी ही की गयी न हो। आधा काम तुमने किया औऱ आधा बाहरी दुनिया ने, और इस
तरह तुम्हें चोट लगी। यह विचार हमें गम्भीर बना देगा। और साथ ही, इस विश्लेषण
से आशा की आवाज आएगी, 'बाह्म जगत् पर मेरा नियंत्रण भले न हो, पर जो मेरे
अन्दर है, जो मेरे अधिक निकट है, वह मेरा अन्तर्जगत् मेरे अधिकार में है। यदि
असफलता के लिए इन दोनों के संयोग की आवश्यकता होती हो, यदि चोट लगने के लिए
इन दोनों का इकठ्टे होना जरूरी हो, तो मेरे अधिकार में जो दुनिया है, उसे मै
नहीं छोड़ूँगा, फिर देखूँगा कि मुझे चोट कैसे लगती है? यदि मै स्वयं पर सच्चा
प्रभुत्व पा जाऊँ, तो चोट कभी नहीं लग सकेगी।
हम बचपन से ही सर्वदा अपने से बाहर किसी दूसरी वस्तु पर दोष मढ़ने का प्रयत्न
किया करते हैं। हम सदा दूसरों के सुधार में तत्पर रहते हैं, पर अपने सुधार
में नहीं यदि हम दु:खी होते हैं, तो चिल्लाते है कि 'यह तो शैतान की दुनिया
है।' हम दूसरों को दोष देते हैं औऱ कहते है, 'कैसे मोहग्रस्त पागल हैं।' तो
हम भी शैतान ही है, नहीं तो हम यहाँ क्यों रहते? 'ओह, संसार के लोग कितने
स्वार्थी है।'- सच है, यदि हम उनसे अच्छे हैं, तो फिर हमारा उनसे सम्बन्ध
कैसे हुआ? जरा यह सोचो तो।
जिसके हम पात्र हैं, वही हम पाते हैं। जब हम कहते है कि दुनिया बुरी है और हम
अच्छे, तो यह सरासर झूठ है। ऐसा कभी हो नहीं सकता। यह एक भीषण असत्य है, जो
हम अपने से कहते हैं।
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