उपन्यास >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘‘यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है। इसने एक ऐसे देवता का खून कर दिया, जिसने इसे पनाह दी…पराया होते हुए भी अपनी औलाद की तरह पाला-पोसा।
ऐसी औरत पर रहम किया गया, तो इंसाफ का देवता खून के आंसू रोएगा।’’
‘‘इसलिए कि मुझे आपसे कोई प्रेम नहीं…
कोई सहानुभूति नहीं—वह बचपन की
एक भूल थी, एक नादानी थी…,
जो जीवन की दुर्बलता बनकर रह गई।
आप वर्षो तक मुझे पाप के सागर में डुबोते रहे…
अब मैं संभलना चाहती हूं…
उस पाप से निकलना चाहती हूं…अंकल!
अब मैं एक ब्याहता स्त्री हूं…
मैं अपने गृहस्थ को संवारना चाहती हूं…’
यह कहते-कहते वह रो पड़ी।
– इसी उपन्यास में से
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