व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> मन की शक्तियाँ मन की शक्तियाँस्वामी विवेकानन्द
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मनुष्य यदि जीवन के लक्ष्य अर्थात् पूर्णत्व को
वह राजी हो गया। उसकी इच्छानुसार मैंने अपना हाथ उसके सिर पर रखा औऱ बाद में वह अपना वचन पूरा करने को आगे बढा। वह केवल एक धोती पहने था। उसके अन्य सब कपड़े हमने अपने पास ले लिये थे। अब मैंने उसे केवल एक कम्बल ओढ़ने के लिए दिया, क्योंकि ठण्ड के दिन थे, और उसे एक कोने में बिठा दिया। पचास आँखें उसकी ओर ताक रही थीं।
उसने कहा, “अब आप लोगों को जो कुछ चाहिए, वह कागज पर लिखिये।”
हम सब लोगों ने उन फलों के नाम लिखे, जो उस प्रान्त में पैदा तक न होते थे- अंगूर के गुच्छे, सन्तरे इत्यादि। और हमने वे कागज उसके हाथ में दे दिये। कैसा आश्चर्य। उसके कम्बल में से अंगूर के गुच्छे तथा सन्तरे आदि इतनी संख्या में निकले कि अगर वजन किया जाता, तो वे सब उस आदमी के वजन से दुगने होते।
उसने हमसे उन फलों को खाने के लिए कहा। हममें से कुछ लोगों ने यह सोचकर कि शायद यह जादू-टोना हो, खाने से इन्कार किया। लेकिन जब उस ब्राह्मण ने ही खुद खाना शुरु कर दिया, तो हमने भी खाये। वे सब फल खाने योग्य ही थे।
अन्त में उसने गुलाब के ढेर निकाले। हरएक फूल पूरा खिला था। पंखुड़ियों पर ओस के बिन्दु थे। कोई भी फूल न तो टूटा था औऱ न दबकर खराब ही हुआ था। औऱ उसने ऐसे एक-दो नहीं, वरन् ढेर-के ढेर निकाले। जब मैंने पूछा कि यह कैसे किया, तो उसने कहा, “यह सिर्फ हाथ की सफाई है।”
यह चाहे जो कुछ हो, परन्तु केवल ‘हाथ की सफाई’ होना तो असम्भव था। इतनी बड़ी संख्या में वह वे चीजें कहाँ से पा सकता था?
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