व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> मन की शक्तियाँ मन की शक्तियाँस्वामी विवेकानन्द
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मनुष्य यदि जीवन के लक्ष्य अर्थात् पूर्णत्व को
वे लोग जिस सिद्धान्त पर पहुँचे हैं, वह यह है कि यह सारा अद्भुत सामर्थ्य मनुष्य के मन में अवस्थित है, मनुष्य का मन समष्टि मन का अंश मात्र है। प्रत्येक मन दूसरे प्रत्येक मन से संलग्न है। औऱ प्रत्येक मन, वह चाहे जहाँ रहे, सम्पूर्ण विश्व के व्यापार में प्रत्यक्ष भाग ले रहा है।
क्या तुम लोगों ने विचार-संक्रमण (Thoughts-transference) का चमत्कार देखा है?
यहाँ एक मनुष्य कुछ विचार करता है और वह विचार अन्यत्र किसी दूसरे मनुष्य में प्रगट हो जाता है। एक मनुष्य अपने विचार दूसरे मनुष्य के पास भेजता है, इस दूसरे मनुष्य को यह मालूम हो जाता है कि इस तरह का सन्देश उसके पास आ रहा है। वह उस सन्देश को ठीक उसी रूप में ग्रहण करता है, जिस रूप में वह भेजा गया था। पूर्वसाधनाओं से यह बात सिद्ध होती है। यह केवल आकस्मिक घटना नहीं है। दूरी के कारण कुछ अन्तर नहीं पड़ता। यह सन्देश उस दूसरे मनुष्य तक पहुँच जाता है और वह दूसरा मनुष्य उसे समझ लेता है।
अगर तुम्हारा मन एक स्वतन्त्र वस्तु होता जो वहाँ विद्यमान है, औऱ मेरा मन एक स्वतन्त्र वस्तु होता जो यहाँ विद्यमान है, और इन दोनों मनों में यदि कोई सम्बन्ध न होता, तो मेरे विचार तुम्हारे पास कैसे पहुँच पाते?
सर्वसाधारण व्यवहार में, मेरा विचार सीधा तुम्हारे पास नहीं पहुँचता अपितु प्रथम मेरे विचार को आकाशतत्त्व के स्पन्दनों में परिणत होना पड़ता है। ये स्पंदन फिर तुम्हारे मस्तिष्क में पहुँचते हैं। वहाँ फिर से इन स्पन्दनों का तुम्हारे अपने विचार में रूपान्तर होता है और इस तरह मेरा विचार तुम्हारे पास पहुँचता है।
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