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धर्म एवं दर्शन >> मरणोत्तर जीवन

मरणोत्तर जीवन

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9587
आईएसबीएन :9781613013083

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ऐसा क्यों कहा जाता है कि आत्मा अमर है?


हिन्दू दार्शनिक लोगों ने जो पुनर्जन्म का सिद्धान्त निकाला है, उसके लिए वेदी के उपदेश के सिवाय और भी कोई प्रमाण है? हाँ! ऐसे प्रमाण हैं; और हम आगे यह बताने की आशा करते हैं कि उसके लिए ऐसे ही प्रबल प्रमाण हैं जैसे किसी भी अन्य सर्वमान्य सिद्धान्त के लिए। परन्तु पहले हम यह देख लें कि कई आधुनिक यूरोपीय मनीषियों ने पुनर्जन्म के सम्बन्ध में क्या कहा है।

आई. एच. फिक्टे (I. H. Fichte) आत्मा की अमरता के विषय में बोलते हुए कहते हैं ''यह सच है कि प्राकृतिक जगत् में एक दृष्टान्त है, जो दलील के रूप में अविच्छिन्न अस्तित्व के विरुद्ध सामने लाया जा सकता है। वह यही प्रसिद्ध तर्क है कि जिस वस्तु का किसी काल में आरम्भ हुआ उसका अन्त या नाश किसी काल में अवश्य होगा। अत: आत्मा भूतकाल में थी इस विवाद पक्ष में उसका पूर्व-अस्तित्व तो मान ही लिया गया। यह युक्तिसंगत सिद्धान्त है, पर यह तो उसके अविच्छिन्न अस्तित्व के विरोध में न होकर उसके पक्ष में एक और युक्ति हो गयी। यथार्थ में आवश्यकता है दर्शनशास्र-विषयक शरीर-विज्ञान के इस सत्य के सम्पूर्ण अर्थ को समझने की कि यथार्थ में कोई वस्तु उत्पन्न नहीं की जा सकती और न कोई वस्तु नष्ट ही की जा सकती है। इसी को समझने से, भौतिक शरीर में दृष्टिगोचर होने के पूर्व आत्मा का अस्तित्व अवश्य रहा होगा, यह बात जँच जाती है।''

शोपेनहावर अपनी पुस्तक 'Die Welt als Wille und Vorstellung' में पुनर्जन्म के विषय में कहते है - ''किसी व्यक्ति के लिए जैसी नींद है, उसी तरह 'इच्छाशक्ति' के लिए मृत्यु है। यदि स्मरण और व्यक्तित्व कायम रहे, तो उन्ही कर्मों को करना और उन्हीं दुःखों को भोगना, यही सदा अनन्त काल तक, बिना लाभ के करते रहना कभी सहन नहीं हो सकता। वह इन्हें दूर फेंक देती है और यही Lethe 'लेथी' (मृत्यु) है, और इस मृत्युरूपी नीद में से नया प्राणी बनकर दूसरी बुद्धीन्द्रिय को साथ लेकर पुनः प्रकट होता है; नया दिवस उसे नये प्रदेशों की ओर ललचाता है। तब तो ये सतत होनेवाले नये जन्म उस अविनाशी इच्छा-शक्ति के जीवन-स्वप्न की लगातार श्रेणीरूप हैं। यह तब तक चलेगा, जब तक कि बारम्बार के नये शरीरों में अधिकाधिक और भिन्न-भिन्न प्रकार के ज्ञान द्वारा शिक्षित और उन्नत होकर वह अपना ही अभाव करके अपने को विलुप्त न कर दे।''

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