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धर्म एवं दर्शन >> मरणोत्तर जीवन

मरणोत्तर जीवन

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9587
आईएसबीएन :9781613013083

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ऐसा क्यों कहा जाता है कि आत्मा अमर है?


भिन्न-भिन्न देशों में वहाँ की विशेष परिस्थितियों के कारण भिन्न-भिन्न मत उत्पन्न होते हैं और बढ़ते हैं। पुराने राष्ट्रों को यह समझने के लिए कि मृत्यु के उपरान्त शरीर का भी कोई अंश जीवित रह सकता है, कई युगों का समय व्यतीत करना पड़ा। और शरीर से अलग कोई ऐसी वस्तु है जो स्थायी बनी हुई जीवित रहती है, इस प्रकार का युक्ति- संगत मत निश्चित करने के लिए उनको उससे भी अधिक और कई युग लग गये। जब यह मत निश्चित हो गया कि एक कोई ऐसी वस्तु का अलग अस्तित्व है, जिसका सम्बन्ध शरीर के साथ थोड़े ही समय के लिए रहता है, तभी, और केवल उन्हीं राष्ट्रों में, जो इस सिद्धान्त पर पहुँचे, यह अनिवार्य प्रश्न सामने आया कि वह वस्तु कहॉ से आयी और कहां जायेगी ?

पुराने हिब्रू लोग आत्मा के विषय के कोई विचार अपने मन में न लाकर शान्त बने रहे। उनकी दृष्टि में तो मरण ही सब का अन्त करनेवाला था। कार्ल हेकेल ठीक कहते हैं कि ''यद्यपि यह सच है कि 'पुराने टेस्टामेण्ट' (Old Testament) में निर्वासन के पूर्व हिब्रू लोग शरीर से भिन्न एक जीवन-तत्त्व को पहचानते हैं जिसे वे 'नेफेश' (Nephesh), 'रुआख' (Ruakh), 'नेशामा’ (Nashama) कहते हैं, पर इन शब्दों से आत्मा की अपेक्षा प्राणवायु का बोध होता है। पैलेस्टाइन-निवासी यहूदियों के लेखों में भी निर्वासन के उपरान्त अलग अस्तित्ववाले अमर आत्मा की कही चर्चा नहीं है, बल्कि सर्वत्र ईश्वर से निकलनेवाली केवल उस 'प्राणवायु’ का ही उल्लेख है जो शरीर के नाश होने पर ईश्वरी 'रुआख' में पुन: साम्मिलित हो जाती है।

पुराने मिस्रदेशवासी और खाल्डियन (Chaldeans ) लोगों का आत्मा के सम्बन्ध में एक विशेष प्रकार का विचित्र मत था, पर मृत्यु के उपरान्त इस जीवित रहनेवाले अंश के सम्बन्ध का वह मत, और पुराने हिन्दू, ईरानी, यूनानी या अन्य आर्यजाति का मत, दोनों एक- ही थे ऐसा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। अत्यन्त पुराने जमाने से ही आर्यों के और संस्कृत भाषा न बोलनेवाले म्लेच्छों के आत्मासम्बन्धी विचारों में भारी अन्तर था। उन विचारों का बाह्यस्वरूप, मृतशरीर की जो व्यवस्था की जाती है, उससे दिखायी देता है। बहुधा म्लेच्छों का भरसक प्रयत्न यही रहता है कि मृतशरीर की - सावधानी के साथ उसे गाड़कर या और अधिक परिश्रम के साथ मसाला लगाकर उसे ज्यों का त्यों बनाये रखते हुए - रक्षा की जाय। इसके विपरीत आर्यों की साधारण प्रथा मृतशरीर को जला डालने की है।

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