व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> नया भारत गढ़ो नया भारत गढ़ोस्वामी विवेकानन्द
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संसार हमारे देश का अत्यंत ऋणी है।
अतएव समाज-सुधार के लिए
भी प्रथम कर्तव्य है लोगों को शिक्षित करना। और जब
तक यह कार्य संपन्न नहीं होता, तब तक प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी। लोगों को
यदि आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा न दी जाय तो सारे संसार की दौलत से भी भारत
के एक छोटे से गाँव की सहायता नहीं की जा सकती है। शिक्षाप्रदान हमारा
पहला कार्य होना चाहिए - नैतिक तथा बौद्धिक दोनों ही प्रकार की। शिक्षा का
मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुतसी बातें इस तरह ठूंस दी
जायँ कि अंतर्द्वंद्व होने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर पचा न
सके।
जिस शिक्षा से हम अपना
जीवननिर्माण कर सकें और मनुष्य बन सकें, चरित्रगठन
कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने
योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को पचाकर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर
सके हो, तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरे
पुस्तकालय को कंठस्थ कर रखा है। इसलिए हमारा आदर्श यह होना चाहिए कि अपने
देश की समग्र आध्यात्मिक और लौकिक शिक्षा के प्रचार का भार अपने हाथों में
ले लें और जहाँ तक संभव हो, राष्ट्रीय रीति से राष्ट्रीय सिद्धांतों के
आधार पर शिक्षा का विस्तार करें।
लोग यह भी कहते थे कि अगर
साधारण जनता में शिक्षा का प्रसार होगा, तो
दुनिया का नाश हो जायगा। विशेषकर भारत में, हमें समस्त देश में ऐसे पुराने
सठियाये बूढ़े मिलते हैं, जो सब कुछ साधारण जनता से गुप्त रखना चाहते हैं।
इसी कल्पना में वे अपना बड़ा समाधान कर लेते हैं कि वे सारे विश्व में
सर्वश्रेष्ठ हों। तो क्या वे समाज की भलाई के लिए ऐसा कहते हैं अथवा
स्वार्थ से अंधे होकर? ... मुट्ठी भर अमीरों के विलास के लिए लाखों
स्त्री-पुरुष अज्ञता के अंधकार और अभाव के नरक में पड़े रहे! क्योंकि
उन्हें धन मिलने पर या उनके विद्या सीखने पर समाज डाँवाडोल हो जायगा!!
समाज है कौन? वे लोग जिनकी संख्या लाखों है? या आप और मुझ जैसे दस-पाँच
उच्च श्रेणीवाले।!'' जिस जाति की जनता में विद्या-बुद्धि का जितना ही अधिक
प्रचार है, वह जाति उतनी ही उन्नत है। .. यदि हमें फिर से उन्नति करनी है
तो हमको उसी मार्ग पर चलना होगा, अर्थात जनता में विद्या का प्रसार करना
होगा। सर्वसाधारण को शिक्षित बनाइए एवं उन्नत कीजिए, तभी एक राष्ट्र का
निर्माण हो सकता है। हमारे समाज-सुधारकों को तो घाव के स्थान का भी ज्ञान
नहीं है। केवल शिक्षा! शिक्षा! शिक्षा! यूरोप के बहुतेरे नगरों में घूमकर
और वहाँ के गरीबों के भी अमन-चैन और शिक्षा को देखकर अपने गरीब देशवासियों
की याद आती थी और मैं आंसू बहाता था। यह अंतर क्यों हुआ? उत्तर में पाया
कि शिक्षा से।
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