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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592
आईएसबीएन :9781613011072

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


तार और पत्र दोनों समय पर मिल गये और सुन्दरी देवी शनिवार शाम को ही दिल्ली आ पहुँची। कुलवन्त उसे बस-अड्डे पर लेने के लिये गया था। सुन्दरी ने बस से उतर अपना ट्रंक और बिस्तर निकलवा कर पहला ही प्रश्न पूछा, ‘‘तो कुछ और पता चला?’’

‘‘दीदी का विचार है कि निश्चय ही वह आपका पुत्र है। हमने भी उसके विचार को ठीक समझा है। वह कल घर पर चाय के लिये आमन्त्रित है। आपके उसे पहचान लेने के उपरान्त ही शेष बात करूँगा।’’

‘‘मालूम होता है कि वह अभी भी नाराज है।’’

कुलवन्त ने टैक्सी में सामान रखवाया और जब दोनों उसमें बैठ गये तो कुलवन्त ने कहा, ‘‘मैंने आपको कुछ लाने के लिये लिखा था।’’

‘‘बाबा के कथा वाले ग्रन्थ की बात कह रहे हैं?’’

‘‘हाँ। गरिमा तो उनकी कथा की प्रशंसा करती थकती नहीं।’’

‘‘मैं समझती हूँ कि आप पढ़ लीजियेगा। यदि उसका प्रथम खण्ड कल से पहले पढ़ लेंगे तो अमृत के विषय में बहुत कुछ जान जायेंगे।’’

‘‘तो उसमें उसकी बात भी लिखी है?’’

‘‘हाँ। महिमा ने बाबा की कथा लिखते हुए परिवार की कहानी भी साथ ही लिख दी थी। यही कारण है कि कथा अति रोचक और शिक्षाप्रद होते हुए भी मैंने प्रकाशित करवाने की स्वीकृति नहीं दी।’’

‘‘उसका सम्पादन इस ढंग से किया जा सकता है कि परिवार की कथा बीच में न रहे।’’

‘‘मुझे यह सम्भव प्रतीत नहीं हुआ। मैं घर चलकर आपको वह पुस्तक दूँगी। आप पढ़ियेगा। महिमा बेटी ने बहुत परिश्रम कर वह लिखा है। वैसे तो बीच-बीच में गरिमा के भी प्रयास की झलक मिलती है।’’

घर पहुँच कर जब महिमा और गरिमा माताजी के चरण-स्पर्श कर चुकीं और सुन्दरी उन्हें पीठ पर हाथ फेर प्यार दे चुकी तो महिमा ने कहा, ‘‘माताजी! आप तो हमको भूल ही गयी थीं।’’

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