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धर्म एवं दर्शन >> पवहारी बाबा

पवहारी बाबा

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9594
आईएसबीएन :9781613013076

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यह कोई भी नहीं जानता था कि वे इतने लम्बे समय तक वहाँ क्या खाकर रहते हैं; इसीलिए लोग उन्हें 'पव-आहारी' (पवहारी) अर्थात् वायु-भक्षण करनेवाले बाबा कहने लगे।

पवहारी बाबा

(गाजीपुर के विख्यात साधु)

 

अवतरणिका

भगवान बुद्ध ने धर्म के प्राय: सभी अन्य पक्षों को कुछ समय के लिए दूर रखकर केवल दुःखों से पीड़ित संसार की सहायता करने के महान् कार्य को ही प्रधानता दी थी। परन्तु फिर भी स्वार्थपूर्ण व्यक्तिभाव या 'मैं’ पन से चिपके रहने के खोखलेपन की सत्यता का अनुभव करने के निमित्त आत्मानुसन्धान में उन्हें भी अनेक वर्ष बिताने पड़े थे। भगवान् बुद्ध से अधिक निःस्वार्थ तथा अथक कर्मी हमारी उच्च से उच्च कल्पना के भी परे हैं। परन्तु फिर भी उनकी अपेक्षा और किसे समस्त विषयों का रहस्य जानने के लिए इतने विकट संघर्ष करने पड़े? यह चिरन्तन तथ्य है कि जो कार्य जितना महान होता है, उसके पीछे सत्य के साक्षात्कार की उतनी ही अधिक शक्ति विद्यमान रहती है। किसी पूर्वनिर्धारित महान् योजना को ब्योरेवार कार्यरूप में परिणत करने को आधार देने के लिए भले ही अधिक एकाग्र चिन्तन की आवश्यकता न पड़े, परन्तु प्रबल अन्त:प्रेरणाएँ केवल प्रबल एकाग्रता का ही परिवर्तित रूप होती हैं। सामान्य चेष्टाओं के लिए सम्भव है यह सिद्धान्त पर्याप्त हो, परन्तु जिस हिलोर से एक छोटी-सी लहर की उत्पत्ति होती है, वह लहर उस आवेग से अवश्य ही नितान्त भिन्न है, जो एक प्रचण्ड तरंग को उत्पन्न कर देता है। परन्तु फिर भी यह छोटीसी लहर उस प्रचण्ड तरंग को उत्पन्न करनेवाली शक्ति के एक अल्पांश का मूर्तरूप ही है।

इसके पूर्व कि हमारा मन क्रियाशीलता के निम्न स्तर पर प्रबल कर्मतरंग उत्पन्न कर सके, आवश्यकता इस बात की है कि हम सच्चे तथा ठीक ठीक तथ्यों के निकट पहुँच जाएँ, फिर वे भले ही विकट तथा भयप्रद क्यों न हो; हम सत्य - शुद्ध सत्य - को प्राप्त करें, चाहे उसके आन्दोलन में हमारे हृदय का प्रत्येक तार छिन्न-भिन्न ही क्यों न हो जाए; हम निःस्वार्थ तथा निष्कपट प्रेरणा को प्राप्त करें - चाहे उसकी प्राप्ति में हमारे अंग-प्रत्यंग ही क्यों न कट जाएँ। सूक्ष्म वस्तु कालस्रोत में प्रवाहित होते-होते अपने चारों ओर स्थूल वस्तुओं को समेटती रहती है और अव्यक्त व्यक्त हो जाता है; अदृश्य दृश्य का स्वरूप धारण कर लेता है; जो बात सम्भव-सी प्रतीत होती थी, वह वास्तव रूप धारण कर लेती है; कारण कार्य में तथा विचार शारीरिक कार्यों में परिणत हो जाते हैं।

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