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धर्म एवं दर्शन >> पवहारी बाबा

पवहारी बाबा

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9594
आईएसबीएन :9781613013076

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यह कोई भी नहीं जानता था कि वे इतने लम्बे समय तक वहाँ क्या खाकर रहते हैं; इसीलिए लोग उन्हें 'पव-आहारी' (पवहारी) अर्थात् वायु-भक्षण करनेवाले बाबा कहने लगे।


'जिस प्रकार एक ही अग्नि विश्व में प्रवेश करके विभिन्न रूपों में अपने को प्रकट करती है, और फिर भी जितनी वह व्यक्त हुई है, उससे वह कहीं अधिक होती है' - कठोपनिषद् – 2/2/9

हाँ, वह अनन्त गुनी अधिक है! अनन्त चैतन्य का केवल एक कण हमें सुख देने के लिए इस जड़ जगत् में अवतीर्ण हो सकता है, पर उसके शेष भाग को यहाँ लाकर उसके साथ स्थूल के समान हम मनमाना व्यवहार नहीं कर सकते। वह परम सूक्ष्म वस्तु हमारे दृष्टिक्षेत्र से सर्वदा ही बाहर निकल जाती है तथा उसे हमारे स्तर पर खींच लाने की हमारी जो चेष्टा होती है, उसे देखकर वह हँसती है। इस विषय में हम यही कहेंगे कि 'मुहम्मद को ही पर्वत के निकट जाना होगा' - उसमें 'नहीं' कहने की गुंजाइश नहीं। यदि मनुष्य चाहता है कि वह उस अतीन्द्रिय प्रदेश के सौन्दर्य का पान करे, उसके आलोक में अवगाहन करे तथा उसका जीवन विश्वजीवन के मूल कारण के साथ एकात्म होकर स्पन्दित हो, तो इसके लिए उसे अपने को उसी उच्च स्तर तक उठाना पड़ेगा।

ज्ञान ही विस्मय-राज्य का द्वार खोल देता है, ज्ञान ही पशु को देवता बनाता है और जो ज्ञान हमें उसे ईश्वर के निकट पहुँचा देता है, 'जिसे जान लेने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है' (कस्मिन्न भगवो सर्वमिदं विज्ञातं भवति। -मुण्डकोपनिषद् 1/1/3) - जो समस्त अन्यान्य ज्ञान (अपरा विद्या) का हृदयस्वरूप है, जिसके स्पन्दन से समस्त जड़ भौतिक विज्ञानों में प्राणों का सञ्चार हो जाता है, वह धर्मविज्ञान ही निःसन्देह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि केवल वही मनुष्य को सम्पूर्ण तथा श्रेष्ठ विचारमय जीवन व्यतीत करने में समर्थ बना सकता है। धन्य है वह देश, जिसने उसे 'परा विद्या' नाम से सम्बोधित किया है।

यद्यपि व्यवहार में शायद ही तात्त्विक सिद्धान्त की पूर्ण अभिव्यक्ति दिखाई देती हो, परन्तु फिर भी आदर्श कभी लुप्त नहीं होता। एक ओर हमारा यह कर्तव्य है कि हम अपने आदर्श को कभी लुप्त न होने दें, चाहे हम उसकी ओर निश्चित गति से अग्रसर हों अथवा अस्पष्ट धीमी गति से रेंगते हुए जाएँ; दूसरी ओर वस्तुस्थिति यह है कि हम अपने हाथों को अपनी आँखों के सामने करके उसका प्रकाश ढँकने का चाहे जितना यत्न करें, सत्य सर्वदा हमारे सम्मुख अस्पष्ट रूप से विद्यमान रहता ही है।

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