धर्म एवं दर्शन >> सरल राजयोग सरल राजयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामी विवेकानन्दजी के योग-साधन पर कुछ छोटे छोटे भाषण
कोई शक्ति उत्पन्न नहीं की जा सकती, उसे केवल योग्य दिशा में परिचालित किया
जा सकता है। अत: हमें चाहिए कि हम अपने अंदर पहले से ही विद्यमान अद्भुत
शक्तियों को अपने वश में करना सीखें और अपनी इच्छा-शक्ति द्वारा, उन्हें
पशुवत् स्थिति में न रखते हुए आध्यात्मिक बना दें। अत: यह स्पष्ट है कि
पवित्रता या ब्रह्मचर्य ही समस्त धर्म तथा नीति की आधारशिला है। विशेषत:
राजयोग में मन, वचन तथा कर्म की पूर्ण पवित्रता अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
विवाहित तथा अविवाहित, सभी के लिए एक ही नियम है। देह की इन अत्यन्त
सामर्थ्यशाली शक्तियों को वृथा नष्ट कर देने पर आध्यात्मिक बनना सम्भव नहीं
है।
सारा इतिहास बताता है कि सभी युगों में बड़े-बड़े द्रष्टा महापुरुष या तो
संन्यासी और तपस्वी थे अथवा विवाहित जीवन का परित्याग कर देनेवाले थे। जिनका
जीवन शुद्ध हो केवल वे ही भगवत्साक्षात्कार कर सकते हैं।
प्राणायाम प्रारम्भ करने से पूर्व इस त्रिकोणमण्डल को सामने लाने का प्रयत्न
करो। आँखें बन्द करके मन ही मन कल्पना द्वारा इसका स्पष्ट चित्र सामने लाओ।
सोचो कि यह चारों ओर से ज्वालाओं से घिरा है और उसके बीच में कुण्डलिनी सोयी
पड़ी है। जब तुम्हें कुण्डलिनी स्पष्ट रूप से दिखने लगे तो अपनी कल्पना में
इसे मेरुदण्ड के नीचे मूलाधार चक्र में स्थित करो और उसे जगाने के लिए कुम्भक
से श्वास को अवरुद्ध करके उसके द्वारा उसके मस्तक पर आघात करो। तुम्हारी
कल्पना जितनी ही शक्तिशाली होगी, उतनी शीघ्रता से तुम्हें यथार्थ फल की
प्राप्ति होगी और कुण्डलिनी जागृत हो जाएगी। जब तक वह जागृत नहीं होती, तब तक
यही सोचो की वह जागृत हो गयी है। तथा शक्ति-प्रवाहों को अनुभव करने की चेष्टा
करो और उन्हें सुषुम्ना-पथ में परिचालित करने का प्रयास करो। इससे उनकी
क्रिया में शीघ्रता होती है।
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