धर्म एवं दर्शन >> सरल राजयोग सरल राजयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामी विवेकानन्दजी के योग-साधन पर कुछ छोटे छोटे भाषण
तप, स्वाध्याय, सन्तोष, शौच और ईश्वरप्रणिधान - इन्हें नियम
कहते हैं। नियम शब्द का अर्थ है नियमित अभ्यास और व्रत-परिपालन। व्रतोपवास या
अन्य उपायों से देह-संयम करना शारीरिक तपस्या
कहलाता है। वेदपाठ या दूसरे किसी मन्त्रोच्चारण को सत्त्वशुद्धिकर स्वाध्याय
कहते हैं। मन्त्र जपने के लिए तीन प्रकार के नियम हैं - वाचिक, उपांशु और
मानस। वाचिक से उपांशु जप श्रेष्ठ है और उपांशु से मानस जप। जो जप इतने ऊँचे
स्वर से किया जाता है कि सभी सुन सकते हैं, उसे वाचिक जप कहते हैं। जिस जप
में ओठों का स्पन्दन मात्र होता है, पर पास रहनेवाला कोई मनुष्य सुन नहीं
सकता, उसे उपांशु कहते हैं। और जिसमें किसी शब्द का उच्चारण नहीं होता, केवल
मन ही मन जप किया जाता है और उसके साथ उस मन्त्र का अर्थ स्मरण किया जाता है,
उसे मानसिक जप कहते हैं। यह मानसिक जप ही सब से श्रेष्ठ है। ऋषियों ने कहा है
- शौच दो प्रकार के हैं, बाह्य और
आभ्यन्तर। मिट्टी, जल या दूसरी वस्तुओं से शरीर को शुद्ध करना बाह्य शौच
कहलाता है, जैसे - स्नानादि। सत्य एवं अन्यान्य धर्मों के फलन से मन की
शुद्धि को आभ्यन्तर शौच कहते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर दोनों की शुद्धि आवश्यक
हैं। केवल भीतर में पवित्र रहकर बाहर में अशुचि रहने से शौच पूरा नहीं हुआ।
जब कभी दोनों प्रकार के शौच का अनुष्ठान करना सम्भव न हो, तब आभ्यन्तर शौच का
अवलम्बन ही श्रेयस्कर है। पर ये दोनों शौच हुए बिना कोई भी योगी नहीं बन
सकता। ईश्वर की स्तुति, स्मरण और पूजाअर्चनारूप भक्ति का नाम ईश्वरप्रणिधान
है।
यह तो यम और नियम के बारे में हुआ। उसके बाद है आसन।
आसन के बारे में इतना ही समझ लेना चाहिए कि वक्षःस्थल, ग्रीवा और सिर को सीधे
रखकर शरीर को स्वच्छन्द रूप से रखना होगा। अब प्राणायाम
के बारे में कहा जाएगा। प्राण का अर्थ है अपने शरीर के भीतर रहनेवाली
जीवनशक्ति, और आयाम का अर्थ है उसका संयम। प्राणायाम तीन प्रकार के हैं -
अधम, मध्यम और उत्तम। वह तीन भागों में विभक्त है, जैसे - पूरक, कुम्भक
और रेचक। जिस प्राणायाम में 12 सेकंड तक वायु का पूरण किया जाता है, उसे अधम
प्राणायाम कहते हैं। 24 सेकंड तक वायु का पूरण करने से मध्यम प्राणायाम, और
36 सेकंड तक वायु का पूरण करने से उत्तम प्राणायाम कहते हैं। अधम प्राणायाम
से पसीना, मध्यम प्राणायाम से कम्पन और उत्तम प्राणायाम से उच्छ्वास अर्थात
शरीर का हल्कापन एवं चित्त की प्रसन्नता होती है। गायत्री वेद का पवित्रतम
मन्त्र है। उसका अर्थ है, ''हम इस जगत के जन्मदाता परम देवता के तेज का ध्यान
करते हैं, वे हमारी बुद्धि में ज्ञान का विकास कर दें।'' इस मन्त्र के आदि और
अन्त में प्रणव लगा हुआ है। एक प्राणायाम में गायत्री का तीन बार मन ही मन
उच्चारण करना पड़ता है। प्रत्येक शास्त्र में कहा गया है कि प्राणायाम तीन
अंशों में विभक्त है - जैसे, रेचक अर्थात् श्वासत्याग, पूरक अर्थात्
श्वासग्रहण और कुम्भक अर्थात् स्थिति - भीतर में धारण करना। अनुभवशक्तियुक्त
इन्द्रियाँ लगातार बहिर्मुखी होकर काम कर रही हैं और बाहर की वस्तुओं के
सम्पर्क में आ रही हैं। उनको अपने वश में लाने को प्रत्याहार
कहते हैं। अपनी ओर खींचना या आहरण करना - यही प्रत्याहार शब्द का प्रकृत अर्थ
है।
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