धर्म एवं दर्शन >> सरल राजयोग सरल राजयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामी विवेकानन्दजी के योग-साधन पर कुछ छोटे छोटे भाषण
योग वह विज्ञान है, जिसके द्वारा हम चित्त को अनेक वृत्तियों का रूप धारण
करने अथवा उनमें रूपान्तरित होने से रोकते हैं। समुद्र में चन्द्रमा का
प्रतिबिम्ब जिस प्रकार तरंगों के कारण अस्पष्ट अथवा छिन्न-विच्छिन्न हो जाता
है, उसी प्रकार आत्मा अर्थात् सत्स्वरूप का प्रतिविम्ब भी मन की तरंगों से
विच्छिन्न हो जाता है। समुद्र जब दर्पण की भांति तरंगशून्य होकर शान्त हो
जाता है, तभी चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है। उसी प्रकार जब चित्त
अथवा मन संयम के द्वारा सम्पूर्ण रूप से शान्त हो जाता है, तभी आत्मा का
साक्षात्कार होता है।
यद्यपि चित्त सूक्ष्मतर रूप में जड़ ही है, तथापि वह देह नहीं है। वह देह
द्वारा चिरकाल तक आबद्ध नहीं रहता। हम कभी-कभी देहज्ञान भूल जाते हैं, यही
इसका प्रमाण है। अपनी इन्द्रियों को वशीभूत करके हम इच्छानुसार इस अवस्था की
प्राप्ति के लिए अभ्यास कर सकते हैं। यदि हम ऐसा करने में पूर्ण समर्थ हो
जाएँ, तो समस्त विश्व हमारे वश में हो जाए, क्योंकि हमारी इन्द्रियों द्वारा
जो सब विषय हमारे समीप पहुँचते हैं उन्हीं को लेकर यह जगत् है। स्वाधीनता ही
उच्च जीवन की कसौटी है। आध्यात्मिक जीवन उस समय प्रारम्भ होता है, जिस समय
तुम अपने को इन्द्रियों के बन्धन से मुक्त कर लेते हो। जो इन्द्रियों के अधीन
हैं, वही संसारी हैं, वही दास हैं।
चित्त को तरंगों का रूप धारण करने से सम्पूर्णतया रोकने में समर्थ होने पर
हमारी देह का नाश हो जाता है। इस देह को तैयार करने में करोड़ों वर्षों से
हमें इतना कड़ा परिश्रम करना पड़ा है कि उसी चेष्टा में व्यस्त रहते-रहते हम यह
भूल गये हैं कि इस देह की प्राप्ति का वास्तविक उद्देश्य पूर्णत्व-प्राप्ति
है। हम सोचने लगे हैं कि इस देह को तैयार करना ही हमारी समस्त चेष्टाओं का
लक्ष्य है। यही माया है। हमें इस भ्रम को मिटाना होगा और अपने मूल उद्देश्य
की ओर जाकर इस बात का अनुभव करना होगा कि हम देह नहीं हैं, यह तो हमारा दास
है।
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