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कविता संग्रह >> सरहदें सरहदेंसुबोध श्रीवास्तव
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111 पाठक हैं |
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कविताएं ऎसी हैं जो उम्मीद और आत्मविश्वास की अलख को जगाने का काम करती हैं।
भूमिका
सपने और आत्म भरोसे की कविताएं : सरहदें
कवि सुबोध श्रीवास्तव की कविताएं गाहे-बगाहे पढ़ता रहा हूं। अपने दूसरे कविता-संग्रह सरहदें की पांडुलिपि भेजते समय उन्होंने अपने पहले प्रकाशित संग्रह 'पीढ़ी का दर्द' की प्रति भी भेज दी। उनके संग्रहों और कविताओं को पढ़ते समय यह जानकर अच्छा लगा कि सुबोध मात्र कवि ही नहीं बल्कि एक सजग पत्रकार और कहानी, व्यंग्य, निबंध आदि विधाओं के भी लेखक हैं। इससे उनकी बहुविध प्रतिभा का भी पता चलता है और अनुभव के दायरे का भी। अच्छा यह जानकर भी लगा कि उनके पहले ही संग्रह की कविताओं ने उन्हें डा.गिरिजा शंकर त्रिवेदी, कृष्णानन्द चौबे, डॉ. यतीन्द्र तिवारी, गिरिराज किशोर और नीरज जैसे प्रशंसक दिला दिए। अत: कानपुर के इस कवि को प्रारम्भ में ही प्रयाप्त प्रोत्साहन और स्नेह मिल गया। डॉ. यतीन्द्र ने पत्रकार होने के नाते सुबोध की सामाजिक सहभागिता को रेखांकित किया है। साथ ही उनकी रचनाओं में व्यक्ति की संवेदनाओं का सार्थक साक्षात्कार भी निहित माना है। तमाम कविताओं को पढ़कर एक बात तो सहज रूप में सिद्ध हो जाती हे कि इस कवि का मिजाज सोच या कला के उलझावों का नहीं है। जब जो अनुभव में आया उसकी सहज और सच्ची अभिव्यक्ति करने में इसे एकदम गुरेज नहीं है। वस्तुत: यह कवि अपनी धुन का पकका लगता है--कुछ-कुछ अपनी राह पर, अपनी मस्ती में चलने का कायल। सबूत के लिए, पहले संग्रह में उनकी एक कविता है- कविता के लिए। कविता यूं है-
तुम,
अपनी कुदाल
चलाते रहो,
शोषण की बात सोचकर
रोकना नहीं
अपने-
यंत्रचालित से हाथ
वरना,
मौत हो जाएगी
कविता की।
इस सोच के कवि के पास आत्म भरोसा, सपना और कभी-कभी अपने भीतर भी झांकने और कमजोरियों को उकेरने का माद्दा हुआ करता है। वह झूठी और भावुक आस बंधाने से भी बचा करता है। यथार्थ का दामन न छोड़ता है और न छोड़ने की सलाह देता है। यथार्थ कविता की ये पंक्तियां पढ़ी जा सकती हैं-
पहाड़ से टकराने का
तुम्हारा फैसला
अच्छा है
शायद अटल नहीं
क्योंकि
कमज़ोर नहीं होता
पहाड़,
न ही अकेला
उस तक पहुंचते-पहुंचते
कहीं तुम भी,
शामिल हो जाओ
उसके-
प्रशंसक की भीड़ में।
अच्छी बात है कि दूसरे संग्रह तक पहुंचकर भी इन बातों से कवि ने मुंह नहीं मोड़ा है।
'सरहदें' की कविताएं नि:संदेह कवि का अगला कदम है। यह संग्रह अनुभव की विविधता से भरा है, लेकिन दृष्टि यहां भी कुल मिलाकर सकारात्मक है। वस्तुत: कवि के पास एक ऎसी अहंकार विहीन सहज ललक है, बल्कि कहा जाए कि सक्रिय जीवन की सहज समझ है जो उसे लोगों से जुड़े रहने की उचित समझ देती है—
हमें मिलकर
बनानी है
इक खूबसूरत दुनिया
हां, सहमुच
बगॆर तुम्हारे
यह सब संभव भी तो नहीं।
इस कवि में अपनी राह या प्रतिबद्धता को लेकर कोई दुविधा नहीं है-
मॆं घुलना चाहता हूं
खेतों की सोंधी माटी में
गतिशील रहना चाहता हूं
किसान के हल में
खिलखिलाना चाहता हूं
दुनिया से अनजान
खेलते बच्चों के साथ
हां, चहचहाना चाहता हूं
सांझ ढले
घर लौटते
पंछियों के संग-संग
चाहत है मेरी
कि बस जाऊं वहां-वहां
जहां
सांस लेती है जिन्दगी।
अनेक कविताएं ऎसी हैं जो उम्मीद और आत्मविश्वास की अलख को जगाने का काम करती हैं। यह काम इसलिए और भी महत्त्व का हो जाता है क्योंकि कवि यथार्थ के कटु पक्ष से अपरिचित नहीं है। मोहभंग की स्थितियों से भी अनजान नहीं है। तभी न यह समझ उभर कर आ सकी है-
लौट भले ही आया हूं
मॆं
लेकिन
हारा अब भी नहीं।
वस्तुत:, इस संदर्भ में संकलन की एक अच्छी कविता फिर सृजन को भी पढ़ा जाना चाहिए। यह कवि सपने के मूल्य को भी स्थापित करता है क्योंकि-
सपने-
जब भी टूटते हैं
"लोग"
अक्सर दम तोड़ देते हैं।
और यह भी-
उम्मीदें हमेशा तो नहीं टूटतीं।
यह कवि बार बार बच्चे अथवा बच्चे की मासूमियत की ओर लौटता है क्योंकि बच्चा ही है जो अपने को तहस-नहस की ओर ले जाती मनुष्यता को बचा सकता है। इस दृष्टि से जब एक दिन कविता पढ़ी जा सकती है। सरहदें पांच की ये पंक्तियां और भी गहरे से इसी भाव को बढ़ाते हुए अपनी-अपनी, तरह-तरह की सरहदों में कॆद हो चुके मनुष्य की संवेदना को झकझोर सकती हैं—
विश्वास है मुझे
जब किसी रोज़
क्रीडा में मग्न
मेरे बच्चे
हुल्लड़ मचाते
गुजरेंगे करीब से
सरहद के
एकाएक
उस पार से उभरेगा
एक समूह स्वर
"ठहरो!"
खेलेंगे हम भी
तुम्हारे साथ...
एक पल को ठिठकेंगे
फिर सब बच्चे
हाथ थाम कर
एक दूसरे का
दूने उल्लास से
निकल जाएंगे दूर
खेलेंगे संग-संग
गांएंगे गीत
प्रेम के, बंधुत्व के
तब न रहेंगी सरहदें
न रहेंगी लकीरें
तब रहेंगी
सिर्फ..सिर्फ...सिर्फ.।
संग्रह की एक विशिष्टता इसमें संकलित सरहदें शीर्षक से 11 कविताएं भी हैं। कहीं-कहीं कवि दार्शनिक होकर भीतरी सत्य को उकेरता भी नजर आता है, जैसे अंतर कविता में। कोमल निजी एहसासों कि कुछ कविताएं, जैसे एहसास, इंतज़ार आदि कविताएं भी पाठकों का ध्यान खींच सकती हैं। पाठक पाएंगे कि अपनी भाषा पर कवि कोई अतिरिक्त मुलम्मा नहीं चढ़ाता। यूं कुछ खूबसूरत बिम्ब आदि पाठक को सहज ही सहभागी बनाने में समर्थ हैं—
लेकिन
खिड़की पर
बॆठे धूप के टुकड़े से
नहाया
सफ़ेद कबूतरों का जोड़ा।
यहां मैंने कुछ ही कविताओं के माध्यम से पाठकों को इस संकलन के पढ़े जाने की जरूरत को रेखांकित किया है। मुझे विश्वास है इस संग्रह की कविताएं अपने पाठकों को अपना उचित भागीदार बनाने में समर्थ सिद्ध होंगी।
- दिविक रमेश
बी-295, सेक्टर-20
नोएडा-201301
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