उपन्यास >> सूरज का सातवाँ घोड़ा सूरज का सातवाँ घोड़ाधर्मवीर भारती
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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।
'गुनाहों का देवता ' के बाद यह मेरी दूसरी कथा-कृति है। दोनों कृतियों में काल-क्रम का अंतर पड़ने के अलावा उन बिंदुओं में भी अंतर आ गया है जिन पर हो कर मैंने समस्या का विश्लेषण किया है।
कथा-शैली भी कुछ अनोखे ढंग की है, जो है तो वास्तव में पुरानी ही, पर इतनी पुरानी कि आज के पाठक को थोड़ी नई या अपरिचित-सी लग सकती है। बहुत छोटे-से चौखटे में काफी लंबा घटना-क्रम और काफी विस्तृत क्षेत्र का चित्रण करने की विवशता के कारण यह ढंग अपनाना पड़ा है।
मेरा दृष्टिकोण इन कथाओं में स्पष्ट है; किंतु इनमें आए हुए मार्क्सवाद के जिक्र के कारण थोड़ा-सा विवाद किसी क्षेत्र से उठाया जा सकता है। जो लोग सत्य की ओर से आँख मूँद कर अपने पक्ष को गलत या सही ढंग से प्रचारित करने को समालोचना समझते हैं, उनसे मुझे कुछ नहीं कहना है, क्योंकि साहित्य की प्रगति में उनका कोई रचनात्मक महत्व मैं मानता ही नहीं; हाँ, जिसमें थोड़ी-सी समझदारी, सहानुभूति और परिहास-प्रवृत्ति है उनसे मुझे एक स्पष्ट बात कहनी है :
पिछले तीन-चार वर्षों में मार्क्सवाद के अध्ययन से मुझे जितनी शांति, जितना बल और जितनी आशा मिली है, हिंदी की मार्क्सवादी समीक्षा और चिंतना से उतनी ही निराशा और असंतोष। अपने समाज, अपनी जन-संस्कृति और उसकी परंपराओं से वे नितांत अनभिज्ञ रहे हैं। अत: उनके निष्कर्ष ऐसे ही रहे हैं कि उन पर या तो रोया जा सकता है या दिल खोल कर हँसा जा सकता है। फिर उसकी कमियों की ओर इशारा करने पर वे खीज उठते हैं, वह और भी हास्यापद और दयनीय है।
इसके बावजूद मेरी आस्था कभी भी मार्क्सवाद में कम नहीं हुई और न मैंने अपनी जनता के दु:ख-दर्द से मुँह फेरा है। धीरे-धीरे अपने दृष्टिकोण में अधिकाधिक सामाजिकता विकसित करने की ओर मैं ईमानदारी से उन्मुख रहा हूँ और रहूँगा। और उसी दृष्टि से जहाँ मुझे मार्क्सवादी शब्दजाल के पीछे भी असंतोष, अहंवाद और गुटबंदी दीख पड़ी है उसकी ओर साहस से स्पष्ट निर्देश करना मैं अनिवार्य समझता हूँ क्योंकि ये तत्व हमारे जीवन और हमारी संस्कृति की स्वस्थ प्रगति में खतरे पैदा करते हैं। मैं जानता हूँ कि जो मार्क्सवादी अपने व्यक्तित्व में सामाजिक तथा मार्क्सवाद की पहली शर्त ऑब्जेक्टिविटी विकसित कर चुके हैं, वे मेरी बात समझेंगे और इतना मेरे संतोष के लिए यथेष्ट है।
इसकी भूमिका श्री अज्ञेय ने लिखनी स्वीकार कर ली, इसके लिए मैं उनका कितना आभारी हूँ यह शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। वे मेरे अंतर की आस्था और ईमानदारी को पहचानते हैं और आज के युग में किसी भी लेखक को इससे अधिक क्या चाहिए! उन्होंने इसकी शैली तथा विषय-वस्तु के मर्म को जैसे प्रस्तुत किया है, वह केवल उन्हीं के लिए संभव था। मेरे प्रति उन्होंने जो कुछ अनुशंसात्मक वाक्य लिखे हैं, पता नहीं मैं उनके योग्य हूँ या नहीं, पर मैं उन्हें स्नेह आशीर्वादों के रूप में सिर झुका कर ग्रहण करता हूँ और चाहता हूँ कि अपने को उनके योग्य सिद्ध कर सकूँ। अपने पाठकों से मुझे अक्सर बड़े अनोखे ओर बड़े स्नेहपूर्ण पत्र मिलते रहे हैं। मेरे लिए वे मूल्यवान निधियाँ हैं। उनसे मैं एक बात कहना चाहता हूँ - मैं लिख-लिख कर सीखता चल रहा हूँ और सीख-सीख कर लिखता चल रहा हूँ। जो कुछ लिखता हूँ उसमें सामाजिक उद्देश्य अवश्य है पर वह स्वांत:सुखाय भी है। यह अवश्य है कि मेरे 'स्व' में आप सभी सम्मिलित हैं, आप सभी का सुख-दु:ख, वेदना-उल्लास मेरा अपना है : वास्तव में वह कोई बहुत बड़ी कहानी है जो हम सबों के माध्यम से व्यक्त हो रही है। केवल उसी का एक अंश मेरी कलम से उतर आया है। इसीलिए इसमें जो कुछ श्रेयस्कर है वह आप सभी का ही है; जो कुछ कमजोरियाँ हैं कृति में, वह मेरी अपनी समझी जाएँ।
शिवरात्रि, 23 फरवरी, 1952 - धर्मवीर भारती
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