धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
।। ॐ श्रीदुर्गायै नमः।।
तेरहवां अध्याय : सुरथ और वैश्य को दर्शन और वरदान
ध्यान
ॐ
अरुनोदय रवि
बरन दुति, अंकुस रज कर माहिं।
पुनि मुद्रा अभया वरा, शिवा रहहु उर पाहिं।।
पुनि मुद्रा अभया वरा, शिवा रहहु उर पाहिं।।
बहु प्रकार देवी चरित कहा सुमति अनुसार।
मेधा मुनि से ही भयउ, जैमिनि जगत प्रचार।।१।।
बोले
मुनि नृप तुमहिं सुनावा।
अतुलित चण्डी मातु प्रभावा।।
सोइ जगपालतिं धारतिं माता।
सोइ माता सब ज्ञान प्रदाता।।
मां भगवती सोइ हरिमाया।
जिनतें जगत मोह उपजाया।।
नृप तुम बनिक अपर जे ज्ञानी।
मोहतिं मोहिहै सबहिं भवानी।।
जो चाहत आपन कल्याना।
मातु सरन गहु करु नृप ध्याना।।
बहु विधि देवी पूजन करहीं।
भोग स्वर्ग मुक्ती जन लहहीं।।
बोले मार्कण्ड मुनि ज्ञानी।
जैमिनि देवि चरित जग जानी।।
परम विवेकी दृढ़ ब्रत धारी।
मेधा मुनि जग जस बिस्तारी।।
सुनत चरित नृप मन अति हरषा।
बार-बार मुनि चरननि परसा।।
मोह
मिटा संसय हटा, उर महं उपज विराग।अतुलित चण्डी मातु प्रभावा।।
सोइ जगपालतिं धारतिं माता।
सोइ माता सब ज्ञान प्रदाता।।
मां भगवती सोइ हरिमाया।
जिनतें जगत मोह उपजाया।।
नृप तुम बनिक अपर जे ज्ञानी।
मोहतिं मोहिहै सबहिं भवानी।।
जो चाहत आपन कल्याना।
मातु सरन गहु करु नृप ध्याना।।
बहु विधि देवी पूजन करहीं।
भोग स्वर्ग मुक्ती जन लहहीं।।
बोले मार्कण्ड मुनि ज्ञानी।
जैमिनि देवि चरित जग जानी।।
परम विवेकी दृढ़ ब्रत धारी।
मेधा मुनि जग जस बिस्तारी।।
सुनत चरित नृप मन अति हरषा।
बार-बार मुनि चरननि परसा।।
सुरथ समाधि दोऊ गये, मातु चरन चित लाग।।२।।
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