धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
अथ प्राधानिक रहस्य
बोले नृप ऋषिवर कहेउ सकल देवि अवतार।मूल प्रकृति कर भेद अरु, कहहु रूप विस्तार।।१।।
केहि बिधि आराधन किए, होत सफल सब काज।
पूछत हौं तव सरन गहि, करहु प्रकट मुनिराज।।२।।
बोले
मुनि सर्वज्ञ सुजाना।
परम गुप्त अनुपम यह ज्ञाना।।
कहिबे जोग न यह काहू सों।
भगति भाव भाखे ताही सों।।
महालक्ष्मि परमेस्वरि माया।
त्रिगुनमयी जेहि जग उपजाया।।
प्रगटत दुरीं मातु जग व्यापी।
आदि साक्ति माया निज थापी।।
खेटक गदा चषक कर धारे।
मातुलिंग फल हाथ संभारे।।
मस्तक लिंग जोनि अरु नागा।
धारे रहति करति अनुरागा।।
कुन्दन बरन कनक आभूषन।
अंग दीप्ति सब जग परिपूरन।।
सून्य लोक यह देखि बिचारा।
तब निज तम गुन जग बिस्तारा।।
कृष्न बरन प्रगटीं बनि नारी।
कज्जल जिमि दीसहिं महतारी।।
दाढ़ कराल बदन महं सोहै।
दीरघ नयन छीन कटि मोहै।
चारिभुजी कर महं असि ढाला।
इक कर मुण्ड इतर महं प्याला।।
धारे वक्ष कबन्धनि माला।
मस्तक मुण्डनि माल बिसाला।
नारी रतन तामसी माता।
करि प्रनाम पूछत यह बाता।।
जननी प्रथम कहहु मम नामा।
एहिं जग कौन करब मैं कामा।।
बोलीं महालच्छिमी माता।
नाम कर्म जानहु जग ख्याता।।
सुनत तामसी मातु सयानी।
नाम महाकाली जग जानी।।
परम गुप्त अनुपम यह ज्ञाना।।
कहिबे जोग न यह काहू सों।
भगति भाव भाखे ताही सों।।
महालक्ष्मि परमेस्वरि माया।
त्रिगुनमयी जेहि जग उपजाया।।
प्रगटत दुरीं मातु जग व्यापी।
आदि साक्ति माया निज थापी।।
खेटक गदा चषक कर धारे।
मातुलिंग फल हाथ संभारे।।
मस्तक लिंग जोनि अरु नागा।
धारे रहति करति अनुरागा।।
कुन्दन बरन कनक आभूषन।
अंग दीप्ति सब जग परिपूरन।।
सून्य लोक यह देखि बिचारा।
तब निज तम गुन जग बिस्तारा।।
कृष्न बरन प्रगटीं बनि नारी।
कज्जल जिमि दीसहिं महतारी।।
दाढ़ कराल बदन महं सोहै।
दीरघ नयन छीन कटि मोहै।
चारिभुजी कर महं असि ढाला।
इक कर मुण्ड इतर महं प्याला।।
धारे वक्ष कबन्धनि माला।
मस्तक मुण्डनि माल बिसाला।
नारी रतन तामसी माता।
करि प्रनाम पूछत यह बाता।।
जननी प्रथम कहहु मम नामा।
एहिं जग कौन करब मैं कामा।।
बोलीं महालच्छिमी माता।
नाम कर्म जानहु जग ख्याता।।
सुनत तामसी मातु सयानी।
नाम महाकाली जग जानी।।
कालरात्रि, मायामहा, महामारि कहलाति।
क्षुधा तृषा निद्रा तथा, दुष्पारा बनि ख्याति।।३।।
तृष्ना इकवीरा जगत, प्रगट तिहारो नाम।
इन नामनि अनुरूप ही, जगत देवि तव काम।।४।।
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