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धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती

श्री दुर्गा सप्तशती

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9644
आईएसबीएन :9781613015889

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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में


हे ब्राह्मणों, उठो-जागो!

कभी ऋक्षराज जामवंत ने हनुमान से कहा था कि 'का चुप साधि रहा बलवाना'। युग एक बार फिर कुछ ऐसा ही प्रेरणास्पद आवाहन ब्राह्मणों से कर रहा है। उन ब्राह्मणों से जो मोह से उत्पन्न समस्त संदेहों का विनाश करने में सक्षम हैं, धरती के देवता कहे जाते हैं। जिनकी वंदना गोस्वामी तुलसीदास ने भी महीसुर कहकर की थी-

बंदउं प्रथम महीसुर चरना।
मोह जनित संसय सब हरना।।

जिन ब्राह्मणों ने लोक में यम, नियम की प्रतिष्ठा की है। न केवल उनका अनुपालन सुनिश्चित कराया है बल्कि खुद का चरित्र व आचरण भी परम नैतिक, मर्यादित ओर पुनीत बनाए रखा है। समय संयम, विचार संयम, अर्थ संयम और इंद्रिय संयम की चारों कसौटियों पर जो सतत खरे साबित हुए हैं। जिन्होंने भारत ही नहीं, पूरे संसार को अपने ज्ञान-विज्ञान से प्रभावित किया है, उन्हीं ब्राह्मणों को जगाने की जरूरत क्यों पड़ गई है। जो ब्राह्मण पूरे विश्व को आवाज देता था, 'वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता:' अर्थात हम राष्ट्र को जीवंत और जागृत बनाने वाले पुरोहित हैं। वही अचानक इस स्थिति में कैसे पहुंच गया कि उसे जगाने की आवश्यकता पड़ रही है। उसे उसका पुराना गौरव बताना क्यों जरूरी हो गया है, मौजूदा दौर विज्ञान का है, लोकतंत्र का है, चिंतन और विवेक का है। यह सारी निधियां ब्राह्मणों के पास रही हैं फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि आज वह अपनी ही नजर में उपेक्षित है। इसपर विचार करना न केवल प्रासंगिक है बल्कि समय की मांग भी है।

भारत के वर्तमान राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वरूप पर अगर विहंगम दृष्टि डालें तो विदित होगा कि हम अपनी सनातन सांस्कृतिक परंपरा को भूल गए हैं। एक ऐसी भोगवादी, भौतिकवादी संस्कृति को गले लगाने को तत्पर हैं जो आदर्श और नैतिकता के खात्मे की बात करती है जिसमें भौतिक विकास के लिए न तो चिंतन आवश्यक है और न ही नैतिकता। यूज एंड थ्रो के सिद्धांत की सम्पोषक इस भोगवादी संस्कृति ने नैतिक मूल्यों को निरंतर कमजोर किया है। भारत की सनातन संस्कृति जो क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर की पूजा-अर्चना पर टिकी हुई है, उसने ऐसे समाज की कल्पना भी नहीं की थी जो तेजगति और प्रगति के उन्माद में प्रकृति को विनष्ट कर दे। गंगा जैसी पवित्र नदी के जल को भी आचमन के काबिल न रहने दे। विज्ञान और तकनीकी के इस युग ने ऐसे अभिजात्य वर्ग को पैदा किया है जो भारतीयता से दूर होता जा रहा है। इस वर्ग के पास बुद्धि है, विद्या है, ज्ञान है और धन है पर वह विवेकहीन, आंतरिक हीनता और दैन्यता से ग्रस्त है जिसके कारण न तो इस वर्ग में सुरुचि है और न ही सौंदर्यबोध। इसमें संदेह नहीं कि देश का मूल्यांकन आजकल अर्थशास्त्र के आधार पर हो रहा है। यही अर्थशास्त्र आज भारतीय राजनीति ओर संस्कृति पर हावी होता जा रहा है।

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