धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
मोहिं
बिनु दुखित सकल पुरवासी।
सोच नृपति मन परम उदासी।।
पुरजन रहिहैं सकल दुखारी।
दुर्जन सकल नगर अधिकारी।।
कहां भ्रमत मम प्रिय गजराजा।
भयउ उजार तासु सब साजा।।
जे अनुचर पाछे मम फिरहीं।
ते सुख हेतु सत्रु अनुसरहीं।।
दुर्जन लूटि सकल पुरकोषा।
लेहिं विभव लागहिं मोहिं दोषा।।
बहु प्रकार नृप मन महं बूझा।
नित नव सोच पंथ नहिं सूझा।।
आश्रम फिरत बनिक इक दीसा।
पूछा तुरत ताहि अवनीसा।।
को तुम तात कहां ते आए।
शोक ग्रस्त मुख अति कुम्हिलाए।।
सोच नृपति मन परम उदासी।।
पुरजन रहिहैं सकल दुखारी।
दुर्जन सकल नगर अधिकारी।।
कहां भ्रमत मम प्रिय गजराजा।
भयउ उजार तासु सब साजा।।
जे अनुचर पाछे मम फिरहीं।
ते सुख हेतु सत्रु अनुसरहीं।।
दुर्जन लूटि सकल पुरकोषा।
लेहिं विभव लागहिं मोहिं दोषा।।
बहु प्रकार नृप मन महं बूझा।
नित नव सोच पंथ नहिं सूझा।।
आश्रम फिरत बनिक इक दीसा।
पूछा तुरत ताहि अवनीसा।।
को तुम तात कहां ते आए।
शोक ग्रस्त मुख अति कुम्हिलाए।।
देखि प्रीति अति बनिक तब प्रथमहि कीन्ह प्रनाम।
कहा धनिक कुल जन्म मम बनिक समाधी नाम।।४।।
धन
लोभी मम सुत अरु नारी।
विभव छीनि गृह ते निरवारी।।
परिजन एहि विधि धन सब छीना।
फिरत विपिन विलपत अति दीना।।
इहां न समाचार कछु पावा।
केहिं विधि स्वजन न कछु कहि आवा।।
क्षेम-कुशल नहिं जानउं राजा।
जाने बिनु अति होत अकाजा।।
कतहुं कुमारग सुत चलि जाई।
जदपि-कीन्ह उन अति निठुराई।।
कहेउ नृपति सोहत नहिं बाता।
पुत्र-कलत्र सोच दिन राता।।
बनिक कहत सच वचन तुम्हारा।
उर तें नहिं बिसरत सुत दारा।।
जदपि अनय कीन्हेउ उन घोरा।
निष्ठुर मन न होत यह मोरा।।
विभव छीनि गृह ते निरवारी।।
परिजन एहि विधि धन सब छीना।
फिरत विपिन विलपत अति दीना।।
इहां न समाचार कछु पावा।
केहिं विधि स्वजन न कछु कहि आवा।।
क्षेम-कुशल नहिं जानउं राजा।
जाने बिनु अति होत अकाजा।।
कतहुं कुमारग सुत चलि जाई।
जदपि-कीन्ह उन अति निठुराई।।
कहेउ नृपति सोहत नहिं बाता।
पुत्र-कलत्र सोच दिन राता।।
बनिक कहत सच वचन तुम्हारा।
उर तें नहिं बिसरत सुत दारा।।
जदपि अनय कीन्हेउ उन घोरा।
निष्ठुर मन न होत यह मोरा।।
जदपि निकासेउ गेह ते, तदपि मिटत नहिं नेह।
केहि कारन मन प्रीति अति, उपजत अस संदेह।।5।।
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