धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
खग
सुभाउ देखहु तुम राजा।
क्षुधित रहत दै सुतनि अनाजा।।
इहां न चाहत प्रति उपकारा।
सुतहिं खिलाइ न करत अहारा।।
मूढ मनुज उर सुख की इच्छा।
एहिं ते करत सुतन की रच्छा।।
लोभग्रस्त पितु सुतहिं जियावत।
प्रति उपकार भाव मन लावत।।
नर वपु जदपि ज्ञान की खानी।
जगहितकारिनि मातु भवानी।।
निज माया विस्तारति जबहीं।
मिटत ज्ञान मोहत सब तबहीं।।
मोह कूप अतिशय विकरारा।
ममता भंवर न पावत पारा।।
सब नर बने मोह के चेरे।
मोह महामाया के प्रेरे।।
क्षुधित रहत दै सुतनि अनाजा।।
इहां न चाहत प्रति उपकारा।
सुतहिं खिलाइ न करत अहारा।।
मूढ मनुज उर सुख की इच्छा।
एहिं ते करत सुतन की रच्छा।।
लोभग्रस्त पितु सुतहिं जियावत।
प्रति उपकार भाव मन लावत।।
नर वपु जदपि ज्ञान की खानी।
जगहितकारिनि मातु भवानी।।
निज माया विस्तारति जबहीं।
मिटत ज्ञान मोहत सब तबहीं।।
मोह कूप अतिशय विकरारा।
ममता भंवर न पावत पारा।।
सब नर बने मोह के चेरे।
मोह महामाया के प्रेरे।।
मातु महामाया प्रबल, हरि निद्रा अवतार।
मोहत यह सारा जगत, अचरज वृथा तिहार।।८।।
तेहिं
ते बचत न पण्डित ज्ञानी।
उर बसि प्रेरि रहति जगरानी।।
माया अतिशय प्रबल भुआला।
सकल जगत बाधत निज जाला।।
मायामहा कृपा जब करहीं।
बंधन परत मुक्ति नर लहहीं।।
सनातनी सर्वेश्वरि माता।
विद्या परा मोह की धाता।।
तासु चरित अतिसय विस्तारा।
केहिं विधि भयउ जगत अवतारा।।
कहां वास, आचरन बखानहु।
तासु चरित मुनिवर विस्तारहु।।
जो जग कहलावति है माया।
तासु चरित कहु मुनि करि दाया।
उर बसि प्रेरि रहति जगरानी।।
माया अतिशय प्रबल भुआला।
सकल जगत बाधत निज जाला।।
मायामहा कृपा जब करहीं।
बंधन परत मुक्ति नर लहहीं।।
सनातनी सर्वेश्वरि माता।
विद्या परा मोह की धाता।।
तासु चरित अतिसय विस्तारा।
केहिं विधि भयउ जगत अवतारा।।
कहां वास, आचरन बखानहु।
तासु चरित मुनिवर विस्तारहु।।
जो जग कहलावति है माया।
तासु चरित कहु मुनि करि दाया।
कह भुआल ऋषिराज अब, कहहु चरित समुझाइ।
कहा रहति, कस आचरति, कस प्रभाव तिन माइ।।९।।
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