धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
मेधा
मुनि पुनि नृपहिं सुनावा।
मधु कैटभ वध भेद बतावा।।
भ्रमित असुर सुनि हरि मृदु वचना।
वचन बंधे दोउ खल नहिं बचना।।
तब लखि जलमय धरा अकासा।
कहेउ हरिहिं जस होय विनासा।।
सूखा थल, जह नहिं जलधारा।
अस थल सोधि करहु संहारा।।
ऐसेहिं करब कहेउ असुरारी।
चक्र सुदर्शन निज कर धारी।।
मस्तक पकरि जांघ पर थापी।
संहारे हरि निसिचर पापी।।
एहिं विधि प्रथम प्रगट जगदम्बा।
जगमातहिं ध्यावा जब ब्रह्मा।।
आगिल कथा कहब अब बरनी।
जस प्रभाउ पुनि अद्भुत करनी।।
मधु कैटभ वध भेद बतावा।।
भ्रमित असुर सुनि हरि मृदु वचना।
वचन बंधे दोउ खल नहिं बचना।।
तब लखि जलमय धरा अकासा।
कहेउ हरिहिं जस होय विनासा।।
सूखा थल, जह नहिं जलधारा।
अस थल सोधि करहु संहारा।।
ऐसेहिं करब कहेउ असुरारी।
चक्र सुदर्शन निज कर धारी।।
मस्तक पकरि जांघ पर थापी।
संहारे हरि निसिचर पापी।।
एहिं विधि प्रथम प्रगट जगदम्बा।
जगमातहिं ध्यावा जब ब्रह्मा।।
आगिल कथा कहब अब बरनी।
जस प्रभाउ पुनि अद्भुत करनी।।
मधु-कैटभ वध चरित नित, पाठ करै धरि ध्यान।
ब्रह्मा कृत अस्तुति पढ़त, करति मातु कल्यान।।४५।।
० ० ०
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