धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
आवा
निकट असुर अभिमानी।
देखि कुपित अति मातु भवानी।।
गरजि तरजि महिषासुर धावा।
खुदि खुदिखुरनि धरनि धसकावा।।
धरा धसक्कहिं सिखर मसक्कहिं।
श्रृंग तुंग भूधर लै फेक्कहिं।।
अति प्रचण्ड गति तें लै चक्कर।
पेलि पताल पठावत खल धर।।
पुच्छ प्रहार उदधि हहराना।
प्रलयकाल मानहु जग आना।।
बद्दल श्रृंग अघात तड़क्कहिं।
खंड खंड दामिनी दमक्कहिं।।
हहरि हहरि जब लेत उसांसा।
भूधर उड़ि-उड़ि जात अकासा।।
महिषासुर करि क्रोध अपारा।
देविहिं देखि करत हुंकारा।।
देखि कुपित अति मातु भवानी।।
गरजि तरजि महिषासुर धावा।
खुदि खुदिखुरनि धरनि धसकावा।।
धरा धसक्कहिं सिखर मसक्कहिं।
श्रृंग तुंग भूधर लै फेक्कहिं।।
अति प्रचण्ड गति तें लै चक्कर।
पेलि पताल पठावत खल धर।।
पुच्छ प्रहार उदधि हहराना।
प्रलयकाल मानहु जग आना।।
बद्दल श्रृंग अघात तड़क्कहिं।
खंड खंड दामिनी दमक्कहिं।।
हहरि हहरि जब लेत उसांसा।
भूधर उड़ि-उड़ि जात अकासा।।
महिषासुर करि क्रोध अपारा।
देविहिं देखि करत हुंकारा।।
परम क्रुद्ध जगदम्बिका, चण्डी जग कल्यानि।
महिषासुर को पास तें, बांधा गहि निज पानि।।४।।
बंधन
देखि असुर खिसिआना।
करि माया धारेसि वपु आना।।
सिंह रूप रजनीचर कीन्हा।
तब माता मस्तक असि दीन्हा।।
खंग धारि नर रूप बनावा।
महादेवि पुनि बान चलावा।।
तुरतहिं महिष बना गजराजा।
अति मदमस्त निसाचर भ्राजा।।
सुंड लपेटि सिंह कहु करषा।
घोर नाद करि मन महं हरषा।।
जगदम्बा निज कर असि लीना।
खंड-खंड तिन सुंडहिं कीना।।
महिष
रूप तेहिं कीन्ह पुनि महाअसुर विकराल।करि माया धारेसि वपु आना।।
सिंह रूप रजनीचर कीन्हा।
तब माता मस्तक असि दीन्हा।।
खंग धारि नर रूप बनावा।
महादेवि पुनि बान चलावा।।
तुरतहिं महिष बना गजराजा।
अति मदमस्त निसाचर भ्राजा।।
सुंड लपेटि सिंह कहु करषा।
घोर नाद करि मन महं हरषा।।
जगदम्बा निज कर असि लीना।
खंड-खंड तिन सुंडहिं कीना।।
कंपहिं तीनहुं लोक लखि, चर अरु अचर बिहाल।।५।।
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