धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
बोले
मुनि सर्वज्ञ सुजाना।
भलि प्रकार अस्तुति कर नाना।
जगमातहिँ पूजेउ बहु भांती।
प्रनवत सकल देव आराती।।
नन्दन वन कर पुष्प अनूपा।
चन्दन लेप गंध अरु धूपा।।
विनय प्रनाम कीन्ह बहु भांती।
बोलीं बहुरि जननि मुसकाती।।
हौं हरषित स्तुति सुनि सुरगन।
मांगहु जो भावत तोहि निज मन।।
कहकर जोरि सकल असुरारी।
पूरे आज काजु महतारी।।
महिषासुर असुराधिप मारी।
मातु सकल सुरकाज संवारी।।
मनवांछित तुम सन सब पावा।
तदपि मातु यदि तव मन भावा।।
जब-जब सुमिरन करहुं तिहारा।
दरसन देहु लेहु अवतारा।।
मातु सदा सुर संकट टारहु।
जगजननीं सब जग उद्धारहु।।
जय प्रसन्नवदना जगदम्बा।
पाठ करै जो नित यह अम्बा।।
प्रीति सहित अस्तुति यह गावै।
सो नर धन जस वैभव पावै।।
रिद्धि सिद्धि वित देहु बढ़ाई।
सुखी रहें सुत नारि सदाई।।
सुनहु नृपति कीन्हेउ सुर पूजा।
जगत मातु तुम सम नहिं दूजा।।
लहेउ देव गन अस वरदाना।
करहु माता जग को कल्याना।।
एवमस्तु कहि मातु भवानी।
अन्तरधान भईं महरानी।।
एहिं प्रकार बोले मुनि ज्ञानी।
तुम मां तीन लोक महरानी।।
प्रगट होति देवन के तन तें।
करतिं कृपा नित किए भजन तें।।
मां गौरी सुर मुनि उपकारिनि।
जय भवानि तुम असुर संहारिनि।।
जे जन नित मन क्रम बच ध्यावत।
तुम्हरी कृपा सकल सुख पावत।।
भलि प्रकार अस्तुति कर नाना।
जगमातहिँ पूजेउ बहु भांती।
प्रनवत सकल देव आराती।।
नन्दन वन कर पुष्प अनूपा।
चन्दन लेप गंध अरु धूपा।।
विनय प्रनाम कीन्ह बहु भांती।
बोलीं बहुरि जननि मुसकाती।।
हौं हरषित स्तुति सुनि सुरगन।
मांगहु जो भावत तोहि निज मन।।
कहकर जोरि सकल असुरारी।
पूरे आज काजु महतारी।।
महिषासुर असुराधिप मारी।
मातु सकल सुरकाज संवारी।।
मनवांछित तुम सन सब पावा।
तदपि मातु यदि तव मन भावा।।
जब-जब सुमिरन करहुं तिहारा।
दरसन देहु लेहु अवतारा।।
मातु सदा सुर संकट टारहु।
जगजननीं सब जग उद्धारहु।।
जय प्रसन्नवदना जगदम्बा।
पाठ करै जो नित यह अम्बा।।
प्रीति सहित अस्तुति यह गावै।
सो नर धन जस वैभव पावै।।
रिद्धि सिद्धि वित देहु बढ़ाई।
सुखी रहें सुत नारि सदाई।।
सुनहु नृपति कीन्हेउ सुर पूजा।
जगत मातु तुम सम नहिं दूजा।।
लहेउ देव गन अस वरदाना।
करहु माता जग को कल्याना।।
एवमस्तु कहि मातु भवानी।
अन्तरधान भईं महरानी।।
एहिं प्रकार बोले मुनि ज्ञानी।
तुम मां तीन लोक महरानी।।
प्रगट होति देवन के तन तें।
करतिं कृपा नित किए भजन तें।।
मां गौरी सुर मुनि उपकारिनि।
जय भवानि तुम असुर संहारिनि।।
जे जन नित मन क्रम बच ध्यावत।
तुम्हरी कृपा सकल सुख पावत।।
सुंभ-निसुंभ महाअसुर, जस कीन्हेउ सुरत्रास।
पुनि जननी जग अवतरी, सुनहु सकल इतिहास।।९।।
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