धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
|
3 पाठकों को प्रिय 212 पाठक हैं |
श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
।। ॐ श्रीदुर्गायै नमः।।
ग्यारहवां अध्याय : देवी की स्तुति और देवताओं को वरदान
ध्यान
ॐ
इन्दु किरीट
बालरबि वरना।
कुचयुग उच्च सोह त्रयनयना।।
निज कर अंकुश पास संभारे।
वरद अभय कर मुद्रा धारे।।
मंद-मंद मुसुकाति भवानी।
दिव्य रूप देखत सुख मानी।।
बार-बार विनती परमेस्वरि।
उर पुर सदा बसहु भुवनेस्वरि।।
कुचयुग उच्च सोह त्रयनयना।।
निज कर अंकुश पास संभारे।
वरद अभय कर मुद्रा धारे।।
मंद-मंद मुसुकाति भवानी।
दिव्य रूप देखत सुख मानी।।
बार-बार विनती परमेस्वरि।
उर पुर सदा बसहु भुवनेस्वरि।।
निसिचर नाथ विनास कहि, पुनि बोले मुनिराज।
जगदम्बा अस्तुति करी, जस सुरगन सुरराज।।१।।
सुंभ
मरन देवन सुख मानी।
आए जहं जगदम्ब भवानी।।
चले विबुध कात्यायिनि पासा।
अग्नि अग्र करि सहित हुलासा।।
सुरपति सहित सकल सुरनायक।
कह कर जोरि वचन सुखदायक।।
मिला राज सुर परम सुखारी।
प्रभा पुंज दिसि बिदिस बगारी।।
नाइ सीस विनती सुर करहीं।
तुम्हरी कृपा मातु सुख लहहीं।।
जय जगदम्ब जगत भयहारिनि।
करहु कृपा जन आरत तारिनि।।
छमहु देवि तुम हो जगमाता।
चर अचरनि स्वामिनि सुख दाता।।
तव सुत कीन्ह कबहुं कोउ भूला।
हे भवभामिनि मेटहु सूला।।
जय जय जय माता विस्वेस्वरि।
हो प्रसन्न जगमूला ईश्वरि।।
जय जय जननी जग आधारा।
धरा रूप है तव आकारा।।
जयति मातु 'अतुलित बलसालिनि।
नासति तृषा जगत जल मालिनि।।
मां वैष्नवि तुम माया परमा।
परम सक्ति हो अतुलित बल मां।।
मातु तुम्हीं यह सब जग मोहा।
मिलति मुक्ति मां तुम्हरेहि छोहा।।
जगदम्बा तुम विद्या रूपा।
कल्यानी हो नारि अनूपा।।
केहिं बिधि अस्तुति करूं तिहारी।
बार बार विनवउँ महतारी।।
गिरातीत गोतीत पुनीता।
अर्चन केहिं बिधि करउँ अचिन्ता।।
जयति जयति जग की महरानी।
छमहु मातु निज सेवक मानी।।
आए जहं जगदम्ब भवानी।।
चले विबुध कात्यायिनि पासा।
अग्नि अग्र करि सहित हुलासा।।
सुरपति सहित सकल सुरनायक।
कह कर जोरि वचन सुखदायक।।
मिला राज सुर परम सुखारी।
प्रभा पुंज दिसि बिदिस बगारी।।
नाइ सीस विनती सुर करहीं।
तुम्हरी कृपा मातु सुख लहहीं।।
जय जगदम्ब जगत भयहारिनि।
करहु कृपा जन आरत तारिनि।।
छमहु देवि तुम हो जगमाता।
चर अचरनि स्वामिनि सुख दाता।।
तव सुत कीन्ह कबहुं कोउ भूला।
हे भवभामिनि मेटहु सूला।।
जय जय जय माता विस्वेस्वरि।
हो प्रसन्न जगमूला ईश्वरि।।
जय जय जननी जग आधारा।
धरा रूप है तव आकारा।।
जयति मातु 'अतुलित बलसालिनि।
नासति तृषा जगत जल मालिनि।।
मां वैष्नवि तुम माया परमा।
परम सक्ति हो अतुलित बल मां।।
मातु तुम्हीं यह सब जग मोहा।
मिलति मुक्ति मां तुम्हरेहि छोहा।।
जगदम्बा तुम विद्या रूपा।
कल्यानी हो नारि अनूपा।।
केहिं बिधि अस्तुति करूं तिहारी।
बार बार विनवउँ महतारी।।
गिरातीत गोतीत पुनीता।
अर्चन केहिं बिधि करउँ अचिन्ता।।
जयति जयति जग की महरानी।
छमहु मातु निज सेवक मानी।।
सब महं व्यापक देवि तुम, स्वर्ग मुक्ति वरदानि।
केहिं विधि प्रनवउं मातु तोहि, क्षमा करहु कल्यानि।।२।।
|