धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
|
3 पाठकों को प्रिय 212 पाठक हैं |
श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
जग
तें भयउ निसाचर नासा।
सुरगन कर सुरलोक निवासा।।
निर्भय भए मिला अधिकारा।
भोगहिं जज्ञ पालि आचारा।।
सुंभ निसुंभ जगत परितापी।
रन महं मरे निसाचर पापी।।
सकल देव सुरलोक सिधाए।
हारे दनुज पतालहिं आए।।
आदि नित्य जग की अवलम्बा।
त्राण हेतु अवतरतीं अम्बा।।
सुरगन कर सुरलोक निवासा।।
निर्भय भए मिला अधिकारा।
भोगहिं जज्ञ पालि आचारा।।
सुंभ निसुंभ जगत परितापी।
रन महं मरे निसाचर पापी।।
सकल देव सुरलोक सिधाए।
हारे दनुज पतालहिं आए।।
आदि नित्य जग की अवलम्बा।
त्राण हेतु अवतरतीं अम्बा।।
जय-जय जगजननी अदभुत करनी, हरनी जग की पीरा।
माया बनि मोहतिं सबजग पोहतिं, हरति सकल भव भीरा।।
जे जन तोहिं पूजत मन संतोषत देतिं सुमृति अरु ज्ञाना।
जय महाकालिका, महामारिका प्रलयकाल अनुमाना।।
अज आदि अनूपा सृष्टि स्वरूपा प्रगट कियो जग सारा।
हे सनातनी मां तुम ही भूमा पालति ले अवतारा।।
तुम सृष्टि बनाई विभव बढ़ाई लक्ष्मी रूप तिहारा।
जग कुमति समानी तुम खिसिआनी दारिद दै धनहारा।।
पुष्प धूप अरु गंध, लै जन जे पूजन करत।
धन सुत गति अरु बुद्धि, तुम्हरे सुमिरन जन लहत।७।।
०
० ०
|