धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
संखिनि
मातु संभारहु नयना।
द्वारवासिनी बसु मम श्रवना।।
राखु कपोल कालिका माता।
सिवा कर्नफूलनि की त्राता।।
नथुननि देवि सुगंधा सोहैं।
ऊपर ओठ चर्चिका जोहैं।।
अमृतकला अधर पर आनीं।
जिह्वा सदा बिराजहिं बानीं।।
दंतकुमारि कण्ठ महं चण्डी।
चित्रघण्टिका कण्ठनिघण्टी।।
चिबुक पास कामाक्षी माता।
मातु मंगला वचननि त्राता।।
ग्रीवा भद्रकालि को वासा।
धनुधारिनि तव मेरु निवासा।।
खंगिनि दोउ कंधनि की त्राता।
बाहू वज्रधारिणी माता।।
माँ दण्डिनि राखहु तुम हाथा।
अम्बा कर अंगुरिन के साथा।।
द्वारवासिनी बसु मम श्रवना।।
राखु कपोल कालिका माता।
सिवा कर्नफूलनि की त्राता।।
नथुननि देवि सुगंधा सोहैं।
ऊपर ओठ चर्चिका जोहैं।।
अमृतकला अधर पर आनीं।
जिह्वा सदा बिराजहिं बानीं।।
दंतकुमारि कण्ठ महं चण्डी।
चित्रघण्टिका कण्ठनिघण्टी।।
चिबुक पास कामाक्षी माता।
मातु मंगला वचननि त्राता।।
ग्रीवा भद्रकालि को वासा।
धनुधारिनि तव मेरु निवासा।।
खंगिनि दोउ कंधनि की त्राता।
बाहू वज्रधारिणी माता।।
माँ दण्डिनि राखहु तुम हाथा।
अम्बा कर अंगुरिन के साथा।।
महादेवि अस्तन रखहु, सूलेस्वरि नख राखु।
सोकविनासिनि पातु मन मातु कुलेस्वरि कांखु।।६।।
उर
प्रतिपालहिं ललिता मैया।
उदर सूलधारिनि बचवैया।
नाभि बचावहु कामिनि माता।
गुह्य भाग गुह्येस्वरि त्राता।।
नाम पूतना कामिक माता।
लिंग देस तुम दूनहुं त्राता।।
गुदा महिषवाहिनि प्रतिपालहु।
कटि भगवती मातु संभालहु।।
जानू विंध्यवासिनी माता।
जंघनि महाबला सब दाता।।
नारसिहिं पिंडली बचावै।
चरन पृष्ठ तेजसी रखावैं।।
श्री राखैं अंगुरी चरननि की।
रक्षै तलवासिनि तलुअनि की।।
पद नख राखति दंष्ट्र कराला।
ऊर्ध्वकेसिनी सिर के बाला।।
रोमकूप कौबेरी माता।
वागीश्वरी त्वचा की त्राता।।
उदर सूलधारिनि बचवैया।
नाभि बचावहु कामिनि माता।
गुह्य भाग गुह्येस्वरि त्राता।।
नाम पूतना कामिक माता।
लिंग देस तुम दूनहुं त्राता।।
गुदा महिषवाहिनि प्रतिपालहु।
कटि भगवती मातु संभालहु।।
जानू विंध्यवासिनी माता।
जंघनि महाबला सब दाता।।
नारसिहिं पिंडली बचावै।
चरन पृष्ठ तेजसी रखावैं।।
श्री राखैं अंगुरी चरननि की।
रक्षै तलवासिनि तलुअनि की।।
पद नख राखति दंष्ट्र कराला।
ऊर्ध्वकेसिनी सिर के बाला।।
रोमकूप कौबेरी माता।
वागीश्वरी त्वचा की त्राता।।
रक्त बसा मज्जा सकल, अस्थि मेद अरु मांस।
गिरिजा मां राखहु सदा, मेंटहु जन की त्रास।।७।।
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