धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
तप
हित गवन बनिक, नृप कीन्हा।
पुनि जेहिं विधि मां दरसन दीन्हा।।
सकल कथा अब सुनहु मुनीसा।
नदी पुलिन पहुंचे अवनीसा।।
देवी सूक्त जपहिं धरि ध्याना।
बहु विधि पूजहिं करि सनमाना।।
मूर्ति मृत्तिका की करि राखी।
सदा रहहिं दरसन अभिलाषी।।
करि अरचन षोडस उपचारा।
जप तप भजन हवन सतकारा।।
घटि अहार तन छीजत जाई।
निराहार पुनि दृढ़ मति लाई।।
सुमिरत भजत रहत थिर ध्याना।
निज तन रुधिर करत बलिदाना।।
तीन बरस एहि विधि तप कीन्हा।
जग जननी तब दरसन दीन्हा।।
पुनि जेहिं विधि मां दरसन दीन्हा।।
सकल कथा अब सुनहु मुनीसा।
नदी पुलिन पहुंचे अवनीसा।।
देवी सूक्त जपहिं धरि ध्याना।
बहु विधि पूजहिं करि सनमाना।।
मूर्ति मृत्तिका की करि राखी।
सदा रहहिं दरसन अभिलाषी।।
करि अरचन षोडस उपचारा।
जप तप भजन हवन सतकारा।।
घटि अहार तन छीजत जाई।
निराहार पुनि दृढ़ मति लाई।।
सुमिरत भजत रहत थिर ध्याना।
निज तन रुधिर करत बलिदाना।।
तीन बरस एहि विधि तप कीन्हा।
जग जननी तब दरसन दीन्हा।।
प्रगटी मां जगदम्बिका, पुरवत उर अभिलाष।
बर मांगहु भूपति, बनिक, पूर करब सब आस।।३क।।
अति प्रसन्न तुम दोहुं पर, मांगहु तुम बरदान।
जे जन सब तजि मोहि भजत, राखउं तेहि कर मान।।३ख।।
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