धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
मातु
त्रिगुनमयि प्रकृति स्वरूपा।
महिषासुर मर्दिनि सुनु भूपा।।
गौर बरन तन अस्तन भ्राजत।
जंघ, जानु, भुज स्याम विराजत।।
अरुन बरन पुनि तिन कटि चरना।
अजिता सौर्य जात नहिं बरना।।
अधोभाग सब जन-मन मोहत।
नाना बरन बसन तन सोहत।।
माल बसन भूषन बहु रंगा।
अंगराग मोहत सब अंगा।।
दीपति दीप्ति मनोहर रूपा।
सुभगा सहज स्वरूप अनूपा।।
सहस बाहु जद्यपि तिन आहे।
पूजे मानि अठारह बाहें।।
निचले कर पहिले कहि बायें।
पुनि बरने राजत कर दायें।।
अक्षमाल पंकज धनु बाना।
गदा वज्र रजु चक्र कृपाना।।
सूल संख घंटा अरु ढाला।
परसु दण्ड सक्ती पुनि प्याला।।
लिए कमण्डलु कर महतारी।
भुजनि अठारह अस छबि न्यारी।।
मातु सदा कमलासन राजति।
सर्वदेवमयि ईस्वरि भ्राजति।।
महिषासुर मर्दिनि सुनु भूपा।।
गौर बरन तन अस्तन भ्राजत।
जंघ, जानु, भुज स्याम विराजत।।
अरुन बरन पुनि तिन कटि चरना।
अजिता सौर्य जात नहिं बरना।।
अधोभाग सब जन-मन मोहत।
नाना बरन बसन तन सोहत।।
माल बसन भूषन बहु रंगा।
अंगराग मोहत सब अंगा।।
दीपति दीप्ति मनोहर रूपा।
सुभगा सहज स्वरूप अनूपा।।
सहस बाहु जद्यपि तिन आहे।
पूजे मानि अठारह बाहें।।
निचले कर पहिले कहि बायें।
पुनि बरने राजत कर दायें।।
अक्षमाल पंकज धनु बाना।
गदा वज्र रजु चक्र कृपाना।।
सूल संख घंटा अरु ढाला।
परसु दण्ड सक्ती पुनि प्याला।।
लिए कमण्डलु कर महतारी।
भुजनि अठारह अस छबि न्यारी।।
मातु सदा कमलासन राजति।
सर्वदेवमयि ईस्वरि भ्राजति।।
जो ध्यावत महिपाल नित, महालच्छमी मात।
तीन लोक निज बस करत, सुरपति सम विख्यात।।४।।
गौरी देह समुद्भवा, सरसुति जग आधार।
सतगुन ते तन प्रगट जग, करति सुंभ संहार।।५।।
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