धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
।। ॐ श्रीदुर्गायै नमः।।
अथ मूर्ति रहस्य
मेधा बोले हे नृपति, माता के छह रूप।सुनहु सकल जग वसकरा, सुन्दर सुखद स्वरूप।।१।।
ॐ
प्रथम देवि नंदा जग अइहैं।
नन्द गोप गृह में उपजैहैं।।
पूजन करे भगति उर धारी।
सकल लोक बस सोइ सुखारी।।
कनक वरन तन दुति महतारी।
कुन्दन रूप सुनहरी सारी।।
सुबरन आभूषन तन न्यारे।
अंकुस अब्ज कम्बु रजु धारे।।
चार भुजी माता अति विमला।
श्री इन्दिरा लच्छमी कमला।।
रुकमाबुजासना कहलावतिं।
नन्दा देवि सुजन मन भावति।।
नन्द गोप गृह में उपजैहैं।।
पूजन करे भगति उर धारी।
सकल लोक बस सोइ सुखारी।।
कनक वरन तन दुति महतारी।
कुन्दन रूप सुनहरी सारी।।
सुबरन आभूषन तन न्यारे।
अंकुस अब्ज कम्बु रजु धारे।।
चार भुजी माता अति विमला।
श्री इन्दिरा लच्छमी कमला।।
रुकमाबुजासना कहलावतिं।
नन्दा देवि सुजन मन भावति।।
रक्तदंतिका मातु कर, सुनहु स्वरूप नरेस।
भयहारिनि के ध्यान तें, नहिं कलस को लेस।।२।।
अरुन
बरन अरु बसन अनूपा।
अरुन सकल अभरन सुनु भूपा।
रक्तायुध रक्तिम दोउ नयना।
रक्तकेस रुधिरावृत दसना।।
तीखे नख रुधिरहिं नित साने।
रक्तदंतिका भय उर आने।।
भगतनि प्रीति रखति मां तैसे।
सेवत निज पति नारी जैसे।।
अति विसाल धरती सम सोहे।
कुच जुग मेरु सिखर जिमि मोहे।।
महादीर्घ रमनीय मनोहर।
अति कठोर अरु पीन पयोधर।।
देखि भगत जन रहत मुदित मन।
वांछित लहत पियत जब अस्तन।।
चारभुजी निज करनि संभारे।
खड़ग मुसल हल चषकहिं धारे।।
तुमहीं रक्त चण्डिका माता।
योगेस्वरि रूपा विख्याता।।
व्यापक सकल लोक जगमाता।
रक्तदंतिकहि जो नर ध्याता।।
सब जग व्यापि भोग सुख पावैं।
पुनि सायुज्य भाव को जावैं।
यह अस्तुति नित पढ़ि जब ध्यावइ।
देवि रूप निज उर महं लावइ।।
अरुन सकल अभरन सुनु भूपा।
रक्तायुध रक्तिम दोउ नयना।
रक्तकेस रुधिरावृत दसना।।
तीखे नख रुधिरहिं नित साने।
रक्तदंतिका भय उर आने।।
भगतनि प्रीति रखति मां तैसे।
सेवत निज पति नारी जैसे।।
अति विसाल धरती सम सोहे।
कुच जुग मेरु सिखर जिमि मोहे।।
महादीर्घ रमनीय मनोहर।
अति कठोर अरु पीन पयोधर।।
देखि भगत जन रहत मुदित मन।
वांछित लहत पियत जब अस्तन।।
चारभुजी निज करनि संभारे।
खड़ग मुसल हल चषकहिं धारे।।
तुमहीं रक्त चण्डिका माता।
योगेस्वरि रूपा विख्याता।।
व्यापक सकल लोक जगमाता।
रक्तदंतिकहि जो नर ध्याता।।
सब जग व्यापि भोग सुख पावैं।
पुनि सायुज्य भाव को जावैं।
यह अस्तुति नित पढ़ि जब ध्यावइ।
देवि रूप निज उर महं लावइ।।
भक्ति सहित अस्तुति पढ़े, प्रतिपालति महतारि।
निज पति रत सेवा करति, जिमि पतिव्रता नारि।।३।।
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