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धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती

श्री दुर्गा सप्तशती

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9644
आईएसबीएन :9781613015889

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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में


जेहिं विधि होय चरन अनुरागा।
ज्ञान विचार विवेक विरागा।
जगदम्बा सोइ करहु उपाया।
मातु कृपा कीजै करु दाया।।
अति अबोध चंचल सुत जानी।
अपनावहु माँ आपन मानी।।
क्रूर कुबुधि कपटी कुविचारी।
तदपि पूत पालति महतारी।।
जग महं सुत उपजत खल ब्राता।
नहिं उपजी पर कबहुं कुमाता।
मंत्र-तंत्र-जप-तप मख दाना।
षोडस विधि उपचार न जाना।।
कबहु कीन्ह नहिं विनय प्रनामा।
घेरे रहत कोह मद कामा।।
हौं अघखानि मोह के वस में,
लम्पट विषयी इन्द्रिय रस में।
जानत मन अति मंद गंवारा।
तदपि न पालत सद आचारा।।

मायामयि माया परेउँ, पुनि घेरे कलिकाल।
जननि चरन की सरन हूं पालि सकै तो पाल।।७।।

कलियुग विविध देव जग माहीं।
नाना तंत्र-मंत्र सिधि आहीं।।
बरन जाति कुल गोत अचारा।
परिहरि विविध धरम परचारा।।
जपी-तपी मुण्डी संन्यासी।
जैसे मगहर वैसे कासी।।
नहिं कहुं धरम विवेक विचारा।
नहिं सज्जन कर जग निस्तारा।।
बरन आसरम धरम नसाहीं।
राजनीति व्यापत सब माहीं।
पण्डित चन्दन देखि लजाने।
सुरापान अतिसय रति माने।।
क्षत्रिय भए सक्ति ते हीना।
मांगत फिरत भीख अति दीना।
बनिक बांधि घूमत हथियारा।
करत चाकरी तजि व्यौपारा।
सुद्र खुसी विप्रहिं गरियाई।
नारि सकल मरजाद नसाई।।

अबला अति प्रबला बनी, सूपनखा अवतार।
मातृ रूप तजि भोगमयि करतिं देह व्यापार।।८।।

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