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धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व

आत्मतत्त्व

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9677
आईएसबीएन :9781613013113

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अत्यंत उपलब्ध और अत्यंत अनुपलब्ध तत्त्व का मर्म।


ईश्वर विश्व की सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय का कारण है, अत: कार्य की निष्पत्ति के लिए कारण का विद्यमान होना अनिवार्य है। केवल यही नहीं, कारण ही कार्य बन जाता है। शीशे की उत्पत्ति कुछ भौतिक पदार्थों एवं शिल्पकार के द्वारा प्रयुक्त कुछ शक्तियों के संयोग से होती है। शीशे में उन पदार्थों एवं शक्तियों का योग है। जिन शक्तियों का प्रयोग हुआ है, वे शक्तियाँ संयोजन (लगाव) की शक्ति बन गयी हैं, और यदि वह शक्ति चली जाती है, तो शीशा बिखरकर चूर-चूर हो जायगा, यद्यपि वे पदार्थ निश्चित रूप से उस शीशे में हैं। केवल उनका रूप परिवर्तित होता है। कारण ने कार्य का रूप धारण किया है। जो भी कार्य तुम देखते हो, उसका विश्लेषण तुम कारण के रूप में कर सकते हो। कारण ही कार्य के रूप में अभिव्यक्त होता है। इसका यह अर्थ है कि यदि ईश्वर सृष्टि का कारण है और सृष्टि कार्य है, तो ईश्वर ही सृष्टि बन गया है। यदि आत्माएँ कार्य और ईश्वर कारण है, तो ईश्वर ही आत्माएँ बन गया है। अत: प्रत्येक आत्मा ईश्वर का अंश है। जिस प्रकार एक अग्निपिण्ड से अनेक स्फुलिंग उद्भूत होते हैं, उसी प्रकार उस अनन्त सत्ता से आत्माओं का यह समस्त विश्व प्रादुर्भूत हुआ है।

हमने देखा कि एक तो अनन्त ईश्वर है, और दूसरी अनन्त प्रकृति है तथा अनन्त संख्याओंवाली अनन्त आत्माएँ हैं। यह धर्म की पहली सीढ़ी है, इसे द्वैतवाद कहते हैं - अर्थात् वह अवस्था जिसमें मनुष्य अपने और ईश्वर को शाश्वत रूप से पृथक् मानता है, जहाँ ईश्वर स्वयं एक पृथक् सत्ता है और मनुष्य स्वयं एक पृथक् सत्ता है तथा प्रकृति स्वयं एक पृथक् सत्ता है। फिर द्वैतवाद यह मानता है कि प्रत्येक वस्तु में द्रष्टा और दृश्य (विषय और विषयी) एक दूसरे के विपरीत होते हैं। जब मनुष्य प्रकृति को देखता है, तब वह द्रष्टा (विषयी) है और प्रकृति दृश्य (विषय) है। वह द्रष्टा और दृश्य के बीच में द्वैत देखता है। जब वह ईश्वर की ओर देखता है, तब वह ईश्वर को दृश्य के रूप में देखता है और स्वयं को द्रष्टा के रूप में। वे पूर्णरूपेण पृथक् हैं। यह ईश्वर और मनुष्य के बीच का द्वैत है। यह साधारणत: धर्म के प्रति पहला दृष्टिकोण है।

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