व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> चमत्कारिक दिव्य संदेश चमत्कारिक दिव्य संदेशउमेश पाण्डे
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सम्पूर्ण विश्व में भारतवर्ष ही एक मात्र ऐसा देश है जो न केवल आधुनिकता और वैज्ञानिकता की दौड़ में शामिल है बल्कि अपने पूर्व संस्कारों को और अपने पूर्वजों की दी हुई शिक्षा को भी साथ लिये हुए है।
सम्राट यशोधर्मा ने दशपुर को भारतवर्ष की राजधानी का गौरव प्रदान किया था। यशोधर्मा का समय ई0 533-534 माना जाता है। ये बातें इसी नगर के कुछ ही दूरी पर स्थित शिलालेखों से स्पष्ट होती हैं।
अपने महाकाव्य मेघदूत में कालिदास ने दशपुर के प्रति अपने विशेष स्नेह को प्रकट किया है जिसे पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है मानो उज्जयिनी से अधिक उन्हें दशपुर प्रिय था। कई अन्वेषक दशपुर को महाकवि कालिदास की जन्म स्थली मानते हैं।
स्वर्गीय पद्मभूषण पण्डित सूर्यनारायण व्यास ने एक स्थान पर यहाँ के इतिहास के एक और सुनहरे पृष्ठ को उद्घाटित किया है। उनके उल्लेख के अनुसार - दशपुर मन्दसौर के 10 मुहल्लों के नाम पर प्रसिद्ध हैं। यहीं दर्शाण नदी है जिसके तट पर यह नगर वसा है। कहा जाता है कि यह अत्यन्त पौराणिक परम्परा का नगर है। भगवानरामचन्द्र के पिता दशरथ के समय इसी के पार्श्व में प्रवाहित होने वाली श्रवण नदी के तट पर दशरथजी से भूलवश श्रवण का वध हो गया था। श्रवण की पौराणिक स्मृतियों को सजीव बनाने वाली एक शिला यहाँ आज भी है जिस पर यह पुरातनकालीन घटना उत्कीर्ण मिलती है। जैनागम की 'आवश्यक सूत्र' की चूर्णिका, नियुक्ति एवं वृत्ति के अनुसार भगवान महावीर के समय दशपुर प्रकाश में आया था। भगवान महावीर के समकालीन चण्ड प्रद्योत मालव जनपद उज्जयिनी के राजा थे। सिन्धुसौवीर अधिराज ने उन पर चढ़ाई की थी और उसी काल में दशपुर में 'जिन प्रतिमा' स्थापित की थी। अत: दशपुर एक जैन तीर्थ भी है।
मन्दसौर हजारों वर्षों से शैवधर्म और दर्शन का प्रधान केन्द्र रहा है। प्राचीन वैष्णव मन्दिर-मठ, जैन तीर्थकरों के चैत्य, बौद्धों की विहार गुफाएँ भी यहाँ रही हैं। इतने विशाल और गौरवशाली इतिहास के बावजूद मन्दसौर आज जिस बात के लिये प्रसिद्ध है वो है यही का 'पशुपतिनाथ मन्दिर' यह मन्दिर दशपुर में शिवना नदी के तट पर स्थित है। इस मन्दिर में अवस्थित भव्य अष्टमुखी शिव प्रतिमा का नामकरण नेपाल के 'पशुपति' के अनुरूप पशुपतिनाथ किया गया है।
पशुपतिनाथ की मूर्ति की प्राचीनता पर गौर करने से पहले इस विशाल मूर्ति के चमत्कारिक प्राकट्य का वर्णन देखिये। सन् 1940 की ग्रीष्म ऋतु में जबकि शिवना में पानी का स्तर कुछ कम था- मन्दसौर किले के पूर्व दरवाजे के सामने, चिमनचिश्ती की दरगाह के बिल्कुल पास कुछ धोबी कपड़े धो रहे थे। उन्हीं में उदाजी नाम के एक भाग्यशाली धोबी को सर्वप्रथम इस मूर्ति का अंश दिखाई पड़ा। उसने इसकी सूचना तत्काल नगर के सनातन धर्मी वयोवृद्ध श्री शिवदर्शनलालजी अग्रवाल को दी। उदाजी से ऐसी सूचना मिलते ही बाबू शिवदर्शनलालजी, जो कि स्थानीय 'श्री महावीर व्यायामशाला' के संचालक भी थे, अपनी व्यायामशाला के सदस्यों को लेकर शिवना नदी के उस तट पर पहुँचे। पूरे शहर में यह खबर आग की तरह फैल चुकी थी। अत: सैकड़ों लोग भी वहाँ एकत्रित हो गये। सभी के समक्ष-कई लोगों के सहयोग से रेती कंकड़ आदि हटाकर विशाल अष्टमुखीमूर्ति को सीधा किया गया। वहीं से इस विशालमूर्ति को 14 बैलजोड़ियों से युक्त एक लोहे की गाड़ी में शिवना के दक्षिण तट पर लाया गया जहाँ बाद में इस मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की गई।
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