धर्म एवं दर्शन >> बृहस्पतिवार व्रत कथा बृहस्पतिवार व्रत कथागोपाल शुक्ल
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बृहस्पतिवार के हेतु रखे गये व्रतों की कथा
साधु के कहे अनुसार करते हुए रानी को केवल तीन बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई। भोजन के लिये परिवार तरसने लगा। एक दिन राजा रानी से बोला, “हे रानी। तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ, क्योंकि यहां पर मुझे सभी जानते है। इसलिये मैं कोई छोटा कार्य नहीं कर सकता।” ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया। वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता। इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा।
एक दिन दुखी होकर जंगल में एक पेड़ के नीचे आसन जमाकर बैठ गया। वह अपनी दशा को व्याकुल होने लगा। बृहस्पतिवार का दिन था, एकाएक उसने देखा कि निर्जन वन में एक साधु प्रकट हुआ। वह साधु वेश में स्वयं बृहस्पति देवता थे। लकड़हारे के सामने आकर बोले, “हे लकड़हारे ! इस सुनसान जंगल में तू चिन्तामग्न क्यों बैठा है?” लकड़हारे ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उत्तर दिया, “महात्मा जी, आप सबकुछ जानते हैं मैं क्या कहूँ।“ यह कहकर रोने लगा और साझु को आत्मकथा सुनाई। महात्मा जी ने कहा, “तुम्हारी स्त्री ने बृहस्पति भगवान का निरादर किया है। जिसके कारण रुष्ट होकर उन्होंने तुम्हारी यह दशा कर दी। अब तुम चिन्ता को दूर करके मेरे कहने पर चलो तो तुम्हारे सब कष्ट दूर हो जायेंगे और भगवान पहले से भी अधिक सम्पत्ति देंगे। तुम बृहस्पतिवार के दिन कथा किया करो। दो रुपये के चने मुनक्का मेगाकर उसका प्रसाद बनाओ और शुद्ध जल से लोटे में शक्कर मिलाकर अमृत तैयार करो। कथा के पश्चात अपने सारे परिवार और सुनने वाले प्रेमियों में अमृत व प्रसाद बांटकर आप भी ग्रहण किया करो। ऐसा करने से भगवान तुम्हारी ब कामनाएं पूरी करेंगे।”
साधुके ऐसे वचन सुनकर लकड़हारा बोला, “हे प्रभु ! मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा नहीं मिलता कि भोजन के उपरान्त कुछ बचा सकूं। मैंने रात्रि में अपनी स्त्री को व्याकुल देखा है। मेरे पास कुछ भी नहीं जिससे उसकी खबर मंगा सकूं।”
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