जीवनी/आत्मकथा >> क्रांति का देवता चन्द्रशेखर आजाद क्रांति का देवता चन्द्रशेखर आजादजगन्नाथ मिश्रा
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स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंद्रशेखर आजाद की सरल जीवनी
उस वीर ने कहा ''जब तक तुम यहां से सुरक्षित निकलकर चले नहीं जाते हो तब तक मुझे चैन नहीं मिल सकता। इसलिए तुम शीध्र से शीघ्र भाग जाओ!''
इसके बाद उन्होंने गोलियां उगलती पिस्तौल की आड़ में तिवारी को कर लिया और दूसरे हाथ से उसे धक्के देकर साफ भगा दिया। वह भी इस तरह का अभिनय करता हुआ कि अब तो विवश होकर जाना ही पड़ रहा है, वहाँ से नौ दौ ग्यारह हो गया। अब तो वह पुलिस वालों से डटकर मोर्चा लेने लगे। पुलिस सुपरिंटेण्डेण्ट नाटबाथर ने कुछ आगे बढंकर उनसे कहा, ''हैण्ड्स अप।''
उसी समय आजाद की गोली उसके हाथ में आकर लगी। अपने अफसर को घायल होता देखकर पुलिस जी-तोड़कर गोलियां बरसाने लगी। तब आजाद पेड़ की आड़ में होकर गोलियों का उत्तर गोलियों से देते रहे।
एक ओर हज़ारों पुलिस वाले थे दूसरी ओर अकेले वीर आजाद थे। लगभग बीस मिनट तक दोनों ओर से गोलियां चलती रहीं। आजाद की गोलियों से पुलिस इन्सपैक्टर ठाकुर विश्वनाथ सिंह और कई सिपाही बुरी तरह घायल हो चुके थे। आखिर किसी चीज की कोई हद होती है! आजाद की गोलियां समाप्त होने पर आ गईं। उन्होंने समझ लिया कि अब बच निकलना असम्भव ही है। उन्होंने अपनी पिस्तौल को अपनी छाती पर रखकर गोली मार ली।
इस तरह वह आजादी की प्रतिमूर्ति, क्रान्ति का देवता, अपनी ही गोली से वीरगति को प्राप्त हुआ। निःसंदेह वह आजाद था, सदैव आजाद ही रहा और अन्त में मरते समय भी उसने अपनी आजादी का परिचय दिया।
उनके मर जाने पर भी कायर पुलिस वालों पर उनका इतना आतंक छाया हुआ था कि वे उनके पास जाने का साहस नहीं कर सके। वे उनके शव पर भी गोलियों की बौछारें करते रहे। काफी गोलियों चलाने के बाद जब उन्हें पूरी तरह विश्वास हो गया कि पेड़ के पास आजाद नहीं, केवल आजाद का शव पडा हुआ है तब भी वे काफी देर बाद वहाँ गए, फिर बड़ी निर्लज्जता से शव को घसीटते हुए पुलिस की मोटर में डाल दिया।
इम तरह 27 जनवरी 1931 को दिन के दस बजकर बीस मिनट पर सशस्त्र क्रान्ति का वह दीप, अपनी अंतिम तेजमयी प्रतिभा दिखाकर बुझ गया।
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