| धर्म एवं दर्शन >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
    यह पूछा जाता है कि मन
      में कोई बात हो, तो उसी से सब कुछ हो सकता है, इसके लिये बाह्य-चिह्न धारण
      करने की क्या आवश्यकता है? जब मन में द्विजत्व ग्रहण करने के भाव मौजूद
      हों तो उसका होना ही पर्याप्त है। फिर यज्ञोपवीत क्यों पहनें? और यदि मन
      में उस प्रकार की भावना नहीं है, तो जनेऊ पहनने से भी कुछ लाभ नहीं।
    
    मोटे तौर से यह तर्क ठीक
      प्रतीत होता है, परन्तु जिन्होंने मनुष्य की प्रवृत्तियों का वैज्ञानिक
      अध्ययन किया है वे जानते हैं कि इस तर्क में कितना कम तथ्य है। बुराई की
      ओर, अधर्म की ओर, पाशविक भोगों की ओर मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती
      है। इस ओर मन अपने आप चलता है, पर उसे त्याग के, संयम के, धर्म के मार्ग
      पर ले चलने के लिये बड़े-बड़े कष्ट साध्य प्रयत्न करने पड़ते हैं। पानी को
      बहाया जाय तो वह जिधर नीची भूमि होगी, वह बिना किसी प्रयत्न के अपने आप
      अपना रास्ता बनाता हुआ बहेगा। निचाई जितनी अधिक होगी, उतना ही पानी का
      बहाव तेज होता जायेगा; परन्तु यदि पानी को ऊपर चढ़ाना है तो यह कार्य अपने
      आप नहीं हो सकता इसके लिये तरह-तरह के साधन जुटाने पड़ेंगे। नल, पम्प, टंकी
      आदि का कोई माध्यम लगा कर उसके पीछे ऐसी शक्ति का संयोग करना पड़ता है,
      जिसके दबाव से पानी ऊपर चढ़े। दबाव वाली शक्ति तथा पानी को ऊपर ले जाने
      वाले साधन यदि अच्छे हुए तो, वह तेजी से और अधिक मात्रा में ऊपर चढ़ता है,
      यदि वह साधन निर्बल हुए तो पानी चढ़ने की गति मन्द हो जायेगी।
    			
		  			
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