| धर्म एवं दर्शन >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
    'यह सूत्र यज्ञमय एवं
      अत्यन्त पवित्र है। इसके धारण करने से मेरा शरीर पवित्र है, अत: इसे सब
      प्रकार की अपवित्रताओं से बचाना चाहिए। शारीरिक और मानसिक गन्दगियों से इस
      दैवी पवित्रता की रक्षा की जानी चाहिए।' यह भावना उस व्यक्ति के मन में
      उठनी ही चाहिए जो जनेऊ धारण करता है। जहाँ इस प्रकार की सात्विक आकांक्षा
      होगी वहाँ दैवी शक्तियाँ उसके संकल्प को करने में सहायक होंगी, उसे
      प्रेरणा और साहस देंगी। जहाँ वह फिसलेगा, उसे रोकेगीं और यदि गिरेगा भी तो
      उसे फिर उठायेंगी। इस प्रकार यज्ञ की प्रतिमा-यज्ञोपवीत धारण करने वाला जब
      यह समझता रहेगा कि मैंने अपने कन्धे और छाती पर यज्ञ भगवान् को सुसज्जित
      कर रखा है तो निश्चित रूप से यह यज्ञमय जीवन व्यतीत करने की आकांक्षा
      करेगा। इस प्रकार की आकांक्षा चाहे कितनी ही मन्द क्यों न हो, प्रभु के
      प्रेरक आशीर्वाद के समय मनुष्य के लिए सदा कल्याणकारी ही होती है और इससे
      दिन ब दिन सन्मार्ग में कल्याण-पथ में ही प्रगति होती है। यह प्रगति चूँकि
      ईश्वरीय प्रगति है, इसके द्वारा प्राणी सब प्रकार की सुख-शान्ति का
      अधिकारी बनता जाता है। श्रेष्ठता का आवरण पहन लेना अपने आपको ऐसे पवित्र
      बन्धनों में बाँध लेना है जिनके कारण पतन के गर्त में गिरते-गिरते मनुष्य
      अनेक बार बच जाता है। बाह्य-वेष को देखकर लोग किसी व्यक्ति के बारे में
      अपना मत बनाते हैं लोकमत की दृष्टि में कोई व्यक्ति यदि अच्छा बन गया तो
      उसे अपनी प्रतिष्ठा का ख्याल रहता है। मन विचलित होकर जब कुमार्गगामी होने
      को तैयार हो जाता है, तब लोक-लाज एक ऐसा बन्धन सिद्ध होती है जो उसे
      गिरते-गिरते बचा लेती है।
    
    जिस व्यक्ति ने ब्राह्मण
      या साधु का वेष बना रखा है, तिलक, जनेऊ, माला, कमण्डलु आदि धारण कर रखे
      हैं वह सबके सामने निर्भीकतापूर्वक मद्य-मांस का सेवन जुआ, चोरी, व्यभिचार
      आदि कुकर्म करने में समर्थ न हो सकेगा। करेगा तो बहुत डरता-डरता छिपकर
      अल्प मात्रा में। पर जिन्होंने अपने को प्रत्यक्ष रूप से मद्य-मांस
      विक्रेता तथा पाप व्यवसायी घोषित कर रखा है, उनको इन सब बातों में तनिक भी
      झिझक नहीं होती, वह इन कर्मों को अधिक मात्रा में करना अपनी अधिक बहादुरी
      समझते हैं। रामायण में पतिव्रता होने का कारण लोक-लाज को भी बताया है।
      असंख्यों, स्त्री-पुरुष मानसिक व्यभिचार में लीन रहते हैं पर लोक-लाज वश
      वे कुमार्गगामी होने से बच जाते हैं। यज्ञोपवीत श्रेष्ठता का, द्विजत्व का
      आदर्शवादी होने का प्रतीक है। वह एक साइनबोर्ड है, जो घोषित करता है कि इस
      जनेऊ पहनने वाले ने कर्त्तव्यमय, धर्ममय जीवन बिताने की प्रतिज्ञा ली हुई
      है, जो इस प्रकार साइनबोर्ड कन्धे पर धारण किये हुए है। उसे अपने मार्ग से
      विचलित होते हुए झिझक लगेगी, सोचेगा - दुनियाँ मुझको क्या कहेगी, वह भूल
      या पाप करेगा तो भी झिझकते हुए कम मात्रा में करेगा, उतना नहीं कर सकेगा
      जितना सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र होने पर निर्भय और निर्लज्ज मनुष्य
      निरंकुशतापूर्वक अकर्म किया करते हैं।
    			
		  			
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