व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> हौसला हौसलामधुकांत
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नि:शक्त जीवन पर लघुकथाएं
विकलांग वह व्यक्ति कहा जाता है, जो आँख, कान, जीभ, टांग या बाजू से लाचार, अशक्त होता है। भारतीय समाज में ऐसे लोग प्राय: उपेक्षा के शिकार रहे हैं। हमारे बड़े शहरों में भी बहुत कम सड़कों के किनारे ऐसी दानेदार पट्टियाँ होंगी, जिन पर आँखों से लाचार (नेत्रहीन) लोग लाठी के सहारे स्वयं रास्ता तय कर सकें। जबकि जापान में पचास वर्ष पहले भी हर सड़क के किनारे नेत्रहीनों के लिए ऐसी पट्टियाँ बन चुकी थीं। साहित्य और फिल्मी दुनिया में भी इन्हें उपेक्षा ही अधिक मिली है। फिल्मों में नेत्रहीनो को प्राय: भिखारी या कभी-कभी संगीत प्रेमी के रूप में ही दिखाया गया है। मशहूर फिल्म 'दोस्ती' में एक नेत्रहीन और एक टाँग से लाचार लड़का भिखारी की ही भूमिका में थे। प्रसिद्ध कथाकार प्रेमचंद ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'रंगभूमि' में एक स्थान पर लिखा है-भारत में अंधे आदमियों के लिए न नाम की जरूरत होती है, न काम की। सूरदास उनका बना-बनाया नाम है और भीख मांगना बना-बनाया काम।' इसी प्रकार दूसरी वजहों से निःशक्त और लाचार व्यक्तियों की भी लगभग यही स्थिति है। लंदन में एक स्कूल है, जहां प्रतिदिन बारी-बारी से एक विद्यार्थी को आँख, कान, टाँग या जीभ से काम लिए बिना स्कूल में पढ़ना होता है। आँख पर पट्टी बाँधने से या एक टाँग के बिना जीवन कितना कठिन होता है-इसका उन्हें एहसास कराया जाता है। कथाकार मधुकांत ने 'हौसला' की लघुकथा में इससे भी आगे बढ़कर निःशक्त जीवन के प्रति एहसास जगाने का महत्वपूर्ण काम किया है।
हिंदी लघुकथा-साहित्य के परिप्रेक्ष्य में बात करें, तो भाषा-विशेष, राज्य-विशेष तथा विषय-विशेष पर लघुकथाएँ प्रकाश में लाने के कार्य 1989-90 से आज तक निरंतर होते रहे हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कार्यो का यहाँ उल्लेख करना आवश्यक है-
भाषा-विशेष पर केंद्रित कार्य
श्रेष्ठ पंजाबी लघुकथाएँ (1990 सं. अशोक भाटिया), पंजाबी लघुकथाएं (1994 सं. श्यामसुंदर दीप्ति, श्याम सुंदर अग्रवाल) मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ (1997 सं. बलराम अग्रवाल) तेलुगु की मानक लघु कथाएं (2010 सं. बलराम अग्रवाल) 'चित-पट' (सिंधी लघुकथाएं 2010 सं. हंसराज बलवाणी) आदि।
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