एक जाल है जो सभ्यता ने विकसित किया था, उस जाल में आदमी की गर्दन ऐसे फंस
गयी है, जैसे फांसी लग गयी हो। उस जाल से बगावत है हिप्पी की।
दूसरा सूत्र है हिप्पी का-सहज जीवन-जैसे हैं, हैं।
लेकिन सहज होना बहुत कठिन बात है। सहज होना सच में ही बहुत कठिन बात है,
क्योंकि हम इतने असहज हो गए हैं और इतनी हमने यात्रा कर ली है अभिनय की कि
वहां लौट जाना, जहां हमारी सच्चाई प्रकट हो जाए बहुत मुश्किल है।
डाक्टर पर्ल्स एक मनोवैज्ञानिक है, जो हिप्पियों का गुरु कहा जा सकता
है।
एक महिला गई थी वहां। मैंने उससे कहा था कि जरूर उस पहाड़ी पर हो आना, 2-4 दिन
रुक आना। तो जब वह पर्ल्स के पास गयी और वहां का सारा हिसाब देखा, वह तो बहुत
घबड़ा गयी, बहुत घबड़ा गयी, क्योंकि वहां सहज जीवन सूत्र है। सारे लोग बैठे हैं
और एक आदमी नंगा चला आएगा हाल में और आकर बैठ जाएगा। अगर उसको नंगा होना ठीक
लग रहा है तो यह उसकी मर्जी है। इसमें किसी को कुछ लेना-देना नहीं है। न कोई
हाल में चीखेगा न कोई चिल्लाएगा, न कोई गौर से देखेगा। उसे जैसा ठीक लग रहा
है, उसे वैसा करने देना है।
और जो लोग पर्ल्स के पास महीने भर रह आते हैं, उनकी जिंदगी में कुछ नए फूल
खिल जाते हैं। क्योंकि पहली दफा वे हल्के, पक्षियो की तरह जी पाते है-पौधों
की तरह, या जैसे आकाश में कभी चील को उड़ते देखा हो-पंख भी नहीं चलाती, पंख भी
बंद हो जाते हैं, बस हवा में तैरती रहती है। उस पहाड़ी पर पर्ल्स के पास भी
व्यक्ति हवा में तैर रहे हैं। एक आदमी बाहर नाच रहा है। कोई गीत गा रहा है तो
गीत गा रहा है। कोई रो रहा है तो रो रहा है। कोई रुकावट नहीं है।
लेकिन हमने तो आदमी को सब तरह से रोक रखा है। बच्चे को निर्देश से देने से
शुरू हो जाती है कहानी। हमारी सारी शिक्षा 'डू नाट' से शुरू हो जाती है। और
हर बच्चे के दिमाग में हम ज्यादा से ज्यादा 'यह मत करो', थोपते चले जाते हैं।
अंततः करने की सारी क्षमता, सृजन की सारी क्षमता, 'न-करने' के इस जाल में
लुप्त हो जाती है। या तो वह आदमी चोरी से शुरू कर देता है, जो-जो हमने रोका
था कि मत करो। और या फिर भीतर परेशानी में पड़ जाता है।
दो ही रास्ते हैं या तो पाखंडी हो जाए, या पागल हो जाए।
अगर भीतर लड़ा और अगर सिंसियर होगा, ईमानदार होगा तो पागल हो जाएगा। अगर
होशियार हुआ, चालाक हुआ, कनिंग हुआ तो पाखंडी हो जाएगा। एक दरवाजा मकान के
पीछे से बना लेगा जहां से 'करने' की दुनिया रहेगी, एक दरवाजा बाहर का रहेगा
जहां 'न-करने' के सारे 'टेन कमांडमेंट्स', लिखे हुए है! वहां वह सदा ऐसा खड़ा
होगा कि यह मैं नहीं करता हूं। और करने की अलग दुनिया बना लेगा।
मनुष्य को खंडित, स्किजोफ्रेनिक बनाने में, मनुष्य के मन को खंड-खंड करने में
सभ्यता की 'न करने' की शिक्षा ने बड़ा काम किया है।
हिप्पी कह रहा है कि जो हमें करना है, वह हम करेंगे। और उसके लिए जो भी हमें
भोगना है, हम भोग लेंगे। लेकिन एक बात हम न करेंगे कि करें कुछ, और दिखाएं
कुछ। यही बड़ी गहरी बगाबत है।
हालांकि सदा से साधु-संतों ने कहा था कि बाहर और भीतर एक जैसा होना चाहिए।
हिप्पी भी यही कहते हैं लेकिन एक बुनियादी फर्क है। साधु-संत कहते हैं कि
बाहर और भीतर एक होना चाहिए तब उनका मतलब है: बाहर जैसे हो वैसे ही भीतर होना
चाहिए। हिप्पी जब कहता है कि बाहर-भीतर एक होना चाहिए: तो वह कहता है कि भीतर
जैसे हो वैसे ही बाहर भी होना चाहिए। इन दोनों में फर्क है।
साधु-संत जब कहते हैं कि बाहर जैसे हो, वैसे ही भीतर होना चाहिए : तो वे कहते
हैं कि वह भीतर का दरवाजा बंद करो। हिप्पी कहता है बाहर-भीतर एक होना चाहिए:
तो वह कहता है, बाहर जो दस निषेध आज्ञाओं, 'टेन कमांडमेंट्स' की तख्ती लगी
है, उसको उखाड़कर फेंक दो। और जैसे भी हो, वैसे हो जाओ। अगर चोर हो तो चोर,
अगर बेईमान हो तो बेईमान, क्रोधी हो तो क्रोधी। बड़ा खतरा तो यह है कि क्रोधी
अभिनय कर रहा है अक्रोध का हिंसक अभिनय करे रहा है अहिंसक का कामी अभिनय कर
रहा है ब्रह्मचर्य का। और पुरानी सारी संस्कृतियां अभिनय को बड़ी कीमत देती
हैं और कुशल अभिनता की बड़ी पूजा करती हैं।
हिप्पी कह रहा है हम अभिनय की पूजा नहीं करते, हम जीवन के पूजक हैं। हिप्पी
यह कह रहा है कि झूठे ब्रह्मचर्य से सच्चा यौन ही अर्थपूर्ण है। झूठे
ब्रह्मचर्य में भी वह सुगंध नहीं है, जो सच्चे यौन में हो सकती है। सच्चे
बह्मचर्य की तो बात ही दूसरी है। उसकी सुगंध का हमें क्या पता है? लेकिन
सच्चा यौन न हो तो सच्चे ब्रह्मचर्य की कोई संभावना ही नहीं है। अभी हिप्पी
यह नहीं कह रहे हैं; लेकिन शीघ्र ही जानेंगे तो कहेंगे। अभी तो वे यही कह रहे
हैं कि जो जैसा है वैसा प्रगट करेंगे। हम अगर पशु हैं तो स्वीकृत है कि हम
पशु हैं और हम पशु की भांति ही जीएंगे।
तीसरी बात, जब मैं सोचता हूं तो मुझे लगता है कि अगर खोज की जाए तो ईसाइयों
की कहानी के अदम और ईव हिप्पियों के आदि पुरुष कहे जाने चाहिए। क्योंकि अदम
और ईव को ईश्वर ने कहा था कि तुम ज्ञान के वृक्ष का फल मत चखना। उन्होंने
बगावत कर दी और जिस वृक्ष का फल नहीं चखने को कहा था, उसी का फल चख लिया और
वे ईडन के बगीचे से बहिष्कृत कर दिए गए।
तीसरा सूत्र है हिप्पी का : विद्रोह, इंकार का साहस। एक तो कंफरमिस्ट की
जिंदगी है, 'हां-हुजूर' की, 'यस सर' की। वह जो भी कह रहा है, 'हां' कह रहा
है। वह सदा 'हां-हुजूर' कहने के लिए तैयार है। उसने चाहे बात भी ठीक से नहीं
सुनी है, लेकिन 'हां-हुजूर' कहे जा रहा हैं। उसे पता भी नहीं कि वह किस चीज
में 'हां'
भर रहा है, लेकिन वह 'हां' भरे चला जा रहा है। एक गुर, एक सीक्रेट उसे पता चल
गया है कि जिंदगी में जीना हो तो सब चीज में 'हां' कहे चले जाओ।
हिप्पी कह रहा है, जब तक हम समाज की हर चीज में 'हां' कह रहे हैं तब तक
व्याक्तित्व का जन्म नहीं होता। व्यक्तित्व का जन्म होता है 'नो सेइंग' से,
'न' कहना शुरू करने से।
असल में मनुष्य की आत्मा ही तब पैदा है, जब कोई आदमी 'नो' 'नहीं' कहने की
हिम्मत जुटा लेता है।
जब कोई कह सकता है 'नहीं', चाहे दांव पर पूरी जिंदगी लग जाती हो! और जब एक
बार आदमी 'नहीं' कहना शुरू कर दे, 'नहीं' कहना सीख ले, तब पहली दफा उसके भीतर
इस 'नहीं' कहने के कारण 'डिनायल' के कारण व्यक्तित्व का जन्म शुरु को जाता
है। यह 'न' की जो रेखा है, उसको व्यक्ति बनाती है। 'हां' की रेखा उसको समूह
का अंग बना देती है। इसलिए समूह सदा से आज्ञाकारिता पर जोर देता है।
बाप अपने 'गोबर गणेश' बेटे को कहेगा कि आज्ञाकारी है! क्योंकि 'गोबर गणेश'
बेटे से 'न' निकलती ही नहीं। असल में 'न' निकलने के लिए थोड़ी बुद्धि चाहिए।
'हां' निकलने के लिए बुद्धि का कोई जरूरत नहीं है। 'हा' तो कंप्यूटराइज्ड है,
वह तो जितनी कम होगो, उतनी ही जल्दी निकलता है। 'न' तो सोच-विचार मांगता। 'न'
तो तर्क, आर्गुमेट मांगता है। 'न' जब कहेंगे तौ पच्चीस बार सोचना पड़ता है।
क्योंकिं 'न' कहने पर बात खतम नहीं होती, शरू होती हैं। 'हां' कहने पर बात
खतम हो जाती है, शुरू नहीं होती।
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